Hindi, asked by sksufiyan132, 1 month ago

स्वमत अभिव्यक्ति:
'इतिहास हमें प्रेरणा देता है' विषय पर 25 से 30 शब्दों में अपने विचार लिखिए।​

Answers

Answered by abhishekgajbhiye989
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Answer:

इतिहास हमें प्रेरणा देता है' विषय पर 25 से 30 शब्दों में अपने विचार लिखिए।

Explanation:

कभी-कभी मुझसे उन सीखों के बारे में पूछा जाता है, जो इतिहास हमें दे सकता है। अमूमन यह माना जाता है कि अतीत का अध्ययन हमें वर्तमान और भविष्य के बारे में मार्गदर्शन दे सकता है। मगर, क्या ऐसा मानना ठीक है? उदाहरण के लिए, अगर राजनेताओं को अतीत की बेहतर जानकारी हो, तो क्या वे सत्ता का उपयोग ज्यादा बुद्धिमानी से करते हैं? बेहद प्रतिभाशाली और स्वतंत्र विचार रखने वाले इतिहासकार ए जे पी टेलर ऐसा नहीं मानते। उन्होंने एक बार फ्रांस के किसी राजा के बारे में कहा था, 'मैं हमेशा सोचता हूं कि एक शासक के इतिहास का विद्यार्थी होने का वह एक खतरनाक उदाहरण था। इतिहास पढ़ने वाले ज्यादातर लोगों की तरह वह भी ऐतिहासिक गलतियों से यही सीखता था कि नई गलतियां कैसे हो

अमेरिका के हालिया राष्ट्रपतियों में से इतिहास को लेकर सबसे ज्यादा उत्सुक जॉर्ज डब्ल्यू बुश जूनियर थे। अतीत में हुए युद्धों और दिवंगत राजनेताओं पर लिखी मोटी-मोटी किताबें उनके बिस्तर के नजदीक की मेज पर सजी रहती थीं। येल और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से इतिहास के प्रोफेसर व्हाइट हाउस में भोजन के लिए आमंत्रित हुआ करते थे। ए जे पी टेलर के ठीक उलट ये प्रोफेसर अपने ज्ञान को लेकर बड़े-बड़े दावे करते थे। अतीत की समझ को लेकर अपनी विशेषज्ञता के दम पर इन्हें भरोसा थे कि वर्तमान की कामयाब विदेश नीतियों के निर्माण में ये अपना योगदान दे सकते हैं। इन इतिहासकारों और इनकी किताबों की बदौलत श्रीमान बुश बिल्कुल आश्वस्त थे कि 19वीं सदी के इंग्लैंड की तरह 21वीं सदी में बतौर 'ग्लोबल पुलिसमैन' अमेरिका को अपनी स्थिति मजबूत करनी चाहिए। इसके बाद अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका की जो दुर्गति हुई, वह इतिहास से ली गई इसी सीख का नतीजा थी।

दरअसल, इतिहास कोई तकनीकी विषय न होकर एक मानवीय विषय है। इसका उद्देश्य है मनुष्य की समझ का विस्तार करना, न कि सामाजिक या राष्ट्रीय समस्याओं का हल ढूंढना। सच तो यह है कि कोई इतिहासकार न तो किसी प्रधानमंत्री को बेहतर सरकार चलाने का सुझाव दे सकता है, और न ही किसी सीईओ को उसकी कंपनी को ज्यादा फायदा पहुंचाने के नुस्खे बता सकता है।

बतौर इतिहासकार अपने तीस वर्ष के अनुभव के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इतिहास एक और केवल एक सीख देता है कि कोई जीत या हार स्थायी नहीं होती। आमतौर पर लोग इस सीख को भुला देते हैं। याद कीजिए कि सचिन तेंदुलकर को यह एहसास होने में कितना वक्त लगा कि अब उनमें भारत की ओर से खेलने की क्षमता नहीं रही। वह बस खेले जा रहे थे। आखिरकार, सभी को शर्मिंदगी से बचाने के लिए बीसीसीआई ने वेस्ट इंडीज के साथ एक घरेलू सीरीज का आयोजन किया, ताकि वह 200 टेस्ट खेलने के जादुई आंकड़े को छू लें, और उन्हें डेल स्टीन और मॉर्ने मॉर्केल की गेंदबाजी को भी न झेलना पड़े।

तेंदुलकर से भी ज्यादा महान भारतीय हुए हैं, जो अपनी श्रेष्ठता का ठीक ढंग से आकलन नहीं कर पाए। 1958 में कश्मीर में छुट्टियां बिताने के दौरान नेहरू ने फैसला किया कि वह प्रधानमंत्री पद से सेवानिवृत्त हो जाएंगे, ताकि किसी युवा को मौका दिया जा सके। मगर जब वह दिल्ली लौटे तो उनके साथियों ने उन्हें अपने फैसले पर फिर से विचार करने को राजी कर लिया। अगर नेहरू अपने फैसले पर कायम रहते तो तो वह एक अत्यंत सफल राजनेता के तौर पर याद किए जाते, जिसने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में, बल्कि एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण में बेहद असरदार भूमिका निभाई। बहरहाल, नेहरू प्रधानमंत्री बने रहे, और मुंदड़ा मामला, केरल सरकार की बर्खास्तगी और चीन युद्ध के कलंक से खुद को बचा नहीं पाए। अगर 1958 में नेहरू ने किसी युवा के लिए जगह छोड़ी होती, तो इतिहास आज उन्हें किसी और तरह से याद रखता

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