स्वतंत्रता के बाद कृषि विकास की क्या स्थिति है
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स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय भारतीय कृषि के विकास के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है। आँकड़ों से यह बात एकदम साफ है कि 1950 से पहले, भारत में कृषि की विकास-दर सिर्फ 0.5 प्रतिशत वार्षिक से भी कम थी जबकि आजादी के बाद के वर्षों में कृषि उत्पादन 2.6 प्रतिशत वार्षिक की अभूतपूर्व दर से बढ़ा।
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भारत एशिया के उन देशों में से है जहाँ कई शताब्दियों से कृषक समुदाय फलता-फूलता रहा है। खेती-बाड़ी पर आधारित इस व्यवस्था की अपनी अलग सांस्कृतिक परम्परा बन गई। जिसके संयोग से अपनी पूर्ववर्ती विरासत के साथ विविधताओं से भरी बहुआयामी परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज विकसित हुए। इस तरह सुदृढ़ परम्पराओं वाले भारत को पहला जबरदस्त झटका मध्य युग के उन अनेक आक्रमणकारियों से नहीं लगा बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लगा था और वह भी इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के पूरा होने के बाद। भारत को महानगरीय सभ्यता से जोड़ने के ब्रिटेन के साम्राज्यवादी प्रयास से भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जड़ें हिल गईं। दो शताब्दियों तक चले ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में दूरगामी असर वाले परिवर्तन किए गए। कुछ बदलाव तो इतने जबरदस्त थे कि इनसे देश की आर्थिक व्यवस्था का नक्शा ही बदल गया। ब्रिटिश शासक अपने साथ पश्चिमी विज्ञान और बुद्धिवादी मानवीय मूल्य भी भारत लाए। हालाँकि उन्होंने ऐसा समझ-बूझकर नहीं किया, बल्कि अनजाने में ही ये बातें भारत पहुँची, लेकिन इनसे यहाँ आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई।
आधुनिकीकरण के मार्ग में दूसरा मील का पत्थर 1947 में भारत की आजादी थी। स्वतंत्रता के बाद तो कृषि पर आधारित सामाजिक ढाँचे, इसके स्वरूप तथा उत्पादन में इस्तेमाल की जाने वाली टेक्नोलॉजी में व्यापक गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं। लेकिन इसके बावजूद, कुछ क्षेत्रों में अब भी उत्पादन का परम्परागत अर्द्ध-सामंती तरीका जारी है। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अर्द्धसामंती मूल्यों पर आधारित पतनशील व्यवस्था अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जहाँ तक कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तन का सवाल है ऐसा लगता है कि भारत, परम्परा से आधुनिकता की ओर के संक्रमण दौर से गुजर रहा है।
इस लेख में इन्हीं परिवर्तनों का संक्षिप्त विश्लेषण किया गया है। इसका उद्देश्य भारत में कृषि के क्षेत्र में बदलाव के स्वरूप को स्पष्ट करना तथा परम्परा और आधुनिकता के पारस्परिक प्रभाव का विश्लेषण करना है। यह दस्तावेज चार भागों में बँटा है। भूमिका के बाद पहले खण्ड में भारत में परम्परागत कृषक समाजों की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ बताई गई हैं। इसके बाद दूसरे खण्ड में ब्रिटिश शासनकाल में देश की कृषि पर आधारित व्यवस्था में परिवर्तनों की चर्चा की गई है। तीसरे खण्ड में स्वतंत्रता के बाद कृषि सम्बन्धी बदलाव के उल्लेख के साथ-साथ परम्परा और आधुनिकता के एक-दूसरे पर असर की मुख्य विशेषताएँ भी बतलाई गई हैं। अंतिम हिस्से खण्ड चार में, उपसंहार दिया गया है।
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