स्वतंत्रता के बाद देश की एकीकरण गठन मे नेहरू का योगदान पर निबन्ध
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अहिंसात्मक सत्याग्रही होने पर भी उन्हें पुलिस की लाठियों की गहरी मार सहनी पड़ी। 1928 ई. में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महामंत्री बने 1929 के लाहौर अधिवेशन के बाद नेहरू देश के बुद्धिजीवियों और युवाओं के नेता के रूप में उभरे। नेहरू जी ने कहा था:-
मेरे विचार में, हम भारतवासियों के लिए- एक विदेशी भाषा को अपनी सरकारी भाषा के रूप में स्वीकारना सरासर अशोभनीय होगा। मैं आपको कह सकता हूँ कि बहुत बार जब हम लोग विदेशों में जाते हैं, और हमें अपने ही देशवासियों से अंग्रेज़ी में बातचीत करनी पड़ती है, तो मुझे कितना बुरा लगता है। लोगों को बहुत ताज्जुब होता है, और वे हमसे पूछते हैं कि हमारी कोई भाषा नहीं है? हमें विदेशी भाषा में क्यों बोलना पड़ता हैं?
यह सोचकर कि उस समय अतिवादी वामपंथी धारा की ओर आकर्षित हो रहे युवाओं को नेहरू कांग्रेस आंदोलन की मुख्यधारा में शामिल कर सकेंगे, गांधी ने बुद्धिमानीपूर्वक कुछ वरिष्ठ नेताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। महात्मा का यह आकलन भी सही था कि इस अतिरिक्त ज़िम्मेदारी के साथ नेहरू भी मध्यम मार्ग पर क़ायम रहेंगे।
राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में
1931 में पिता की मृत्यु के बाद जवाहरलाल कांग्रेस की केंद्रीय परिषद में शामिल हो गए और महात्मा के अंतरंग बन गए। यद्यपि 1942 तक गांधी ने आधिकारिक रूप से उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था, पर 1930 के दशक के मध्य में ही देश को गांधी जी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में नेहरू दिखाई देने लगे थे। मार्च 1931 में महात्मा और ब्रिटिश वाइसरॉय लॉर्ड इरविन (बाद में लॉर्ड हैलिफ़ैक्स) के बीच हुए गांधी-इरविन समझौते से भारत के दो प्रमुख नेताओं के बीच समझौते का आभास मिलने लगा। इसने एक साल पहले शुरू किए गए गांधी के प्रभावशाली सविनय अवज्ञा आन्दोलन को तेज़ी प्रदान की, जिसके दौरान नेहरू को गिरफ़्तार किया गया।
गोलमेज सम्मेलन
मुख्य लेख : गोलमेज सम्मेलन
यह आशा कि गाँधी-इरविन समझौता भारत और ब्रिटेन के संबंधों में शांति का पूर्वाभास साबित होगा, साकार नहीं हुई; लॉर्ड वैलिंगडन (जिन्होंने वाइसरॉय के रूप में 1931 में लॉर्ड इरविन का स्थान लिया) ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद लंदन से स्वदेश लौटने के कुछ ही समय बाद जनवरी 1932 में गांधी को जेल भेज दिया। उन पर फिर से सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने के प्रयास का आरोप लगाया गया। नेहरू को भी गितफ़्तार करके दो साल के कारावास की सज़ा दी गई।
प्रांतीय स्वशासन
भारत में स्वशासन की स्थापना की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए लंदन में हुए गोलमेज़ सम्मेलनों की परिणति अंततः 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के रूप में हुई, जिसके तहत भारतीय प्रांतों के लोकप्रिय स्वशासी सरकार की प्रणाली प्रदान की गई। आख़िरकार इससे एक संघीय प्रणाली का जन्म हुआ, जिसमें स्वायत्तशासी प्रांत और रजवाड़े शामिल थे। संघ कभी अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन प्रांतीय स्वशासन लागू हो गया। नेहरू जी ने कहा था:-
आप में जितना अधिक अनुशासन होगा, आप में उतनी ही आगे बढ़ने की शक्ति होगी। कोई भी देश-जिसमें न तो थोपा गया अनुशासन है, और न आत्मा-अनुशासन-बहुत समय तक नहीं टिक सकता।
जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता-संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।:- पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन
1930 के दशक के मध्य में नेहरू यूरोप के घटनाक्रम के प्रति ज़्यादा चिंतित थे, जो एक अन्य विश्व युद्ध की ओर बढ़ता प्रतीत हो रहा था। 1936 के आरंभ में वह अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए यूरोप में थे। इसके कुछ ही समय बाद स्विट्ज़रलैंड के एक सेनीटोरियम में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय भी उन्होंने इस बात पर बल दिया कि युद्ध की स्थिति में भारत का स्थान लोकतांत्रिक देशों के साथ होगा, हालांकि वह इस बात पर भी ज़ोर देते थे कि भारत एक स्वतंत्र देशों के रूप में ही ग्रेट ब्रिटेन और फ़्रांस के समर्थन में युद्ध कर सकता है।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच विवाद
प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने के बाद हुए चुनाव में अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस पार्टी सत्तारूढ़ हुई, तो नेहरू दुविधा में पड़ गए। चुनावों में मुहम्मद अली जिन्ना (जो पाकिस्तान के जनक बने) के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इसलिए कांग्रेस ने अदूरदर्शिता दिखाते हुए कुछ प्रांतों में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की गठबंधन सरकार बनाने के जिन्ना के अनुरोध को ठुकरा दिया। इस निर्णय में नेहरू की कोई भूमिका नहीं थी। इसके फलस्वरूप कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के विवाद ने अंततः हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष का रूप ले लिया, जिसकी परिणति भारत के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के रूप में हुई।