History, asked by anjali200599, 9 days ago

स्वतंत्रता से पूर्व भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन

help me for findout the answer please... ☺​

Answers

Answered by Bhawnadhanik29112000
0

Answer:

ट्रेड यूनियनों में भारत में पंजीकृत हैं और ट्रेड यूनियन ऐक्ट (1926) के तहत वार्षिक रिटर्नफ़ाइल करती हैं। ट्रेड यूनियनों पर आंकड़े श्रम ब्यूरो, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रतिवर्ष एकत्र कीये जाते हैं। 2012 में जारी नवीनतम डेटा के अनुसार देश में 16,154 ट्रेड यूनियन थे, जिन की संयुक्त सदस्यता 9.18 लाख (कुल 36 राज्यों में से 15 के भरे रिटर्न के आधार पर) थी।[1] ट्रेड यूनियन आंदोलन भारत में बड़े पैमाने पर राजनीतिक लाइनों पर विभाजित है और स्वतंत्रता से पूर्व का राजनीतिक दलों और यूनियनों के बीच ओवरलैपिंग बातचीत का पैटर्न पर चलता है। इस प्रकार की व्यवस्था का नेट परिणाम बहस का मुद्दा है क्योंकि इसके दोनों फायदे और नुकसान हैं।

Explanation:

भारत में श्रमिक आंदोलन को निम्नलिखित चरणों के माध्यम से समझा जा सकता है:

1900 से पूर्व का चरण:

इस अवधि के दौरान श्रमिकों द्वारा कई विरोध प्रदर्शन किए गए परंतु ये आन्दोलन तात्कालिक आर्थिक शिकायतों पर आधारित एवं अव्यवस्थित प्रकृति के थे।

सोराबजी शापूरजी, नारायण मेघाजी लोखंडे जैसे कई समाजसेवी, श्रमिकों की परिस्थितियों में सुधार करने हेतु आगे आए। हालांकि, उनके द्वारा किए गए प्रयासों ने एक संगठित मजदूर वर्ग के आंदोलन का प्रतिनिधित्व नहीं किया।

1901-1930 का चरण:

स्वदेशी लहर (1903-1908) के दौरान, श्रमिक आंदोलन अधिक संगठित हो गया था। परंतु स्वदेशी आंदोलन की समाप्ति के साथ ही श्रमिक आंदोलन भी समाप्त होने लगा।

वर्ष 1920 में, ब्रिटिश और भारतीय उद्यमों के विरुद्ध श्रमिक वर्गों के अधिकारों की रक्षा करने हेतु अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) नामक एक राष्ट्रीय स्तर के संगठन की स्थापना की गई। इस संगठन ने मुख्यधारा की राष्ट्रवादी राजनीति में भी भाग लिया, परंतु बाद में यह पूर्ण रूप से आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित हो गया।

1930 के दशक में, विभिन्न वामपंथी विचारधाराओं के एकीकरण ने मजदूर संघ आंदोलन पर गहरा साम्यवादी प्रभाव डाला। परंतु सरकार के आक्रामक रवैये और आंदोलन की साम्यवादी शाखा के अलग होने से आंदोलन को एक गहरा झटका लगा।

1931 से 1947 के दौरान :

साम्यवादियों द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा में कार्य करने की अपनी नीति में परिवर्तन किया गया। इस कारण श्रमिकों ने 1931 से 1936 के मध्य राष्ट्रीय आंदोलन में भाग नहीं लिया।

1937-1939 की अवधि के दौरान प्रांतीय स्वायत्तता प्रदान करने, लोकप्रिय मंत्रालयों के गठन और नागरिक स्वतंत्रताओं में वृद्धि के परिणामस्वरूप कई मजदूर संघ संगठनों का उदय हुआ।

इसी अवधि के दौरान साम्यवादियों द्वारा अपनी पहले की नीति को त्याग दिया गया और वे राष्ट्रवादी राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् आई राजनीतिक लहर के दौरान मजदूर वर्ग की गतिविधियों में एक आश्चर्यजनक पुनरुत्थान हुआ तथा शांतिपूर्ण ढंग से आयोजित होने वाली सभाएं और प्रदर्शन हिंसक संघर्षों में परिवर्तित हो गए।

मजदूर संघों के विकास के पीछे उत्तरदायी कारक:

शोषण, निम्न वेतन, लंबी कार्य अवधि तथा ख़राब कार्य परिस्थितियां इत्यादि कारणों ने श्रमिकों को अपने नियोक्ता के विरुद्ध आवाज़ उठाने हेतु विवश किया।

इसके अतिरिक्त युद्ध और बाढ़ की परिस्थिति के दौरान जीवन यापन की लागत में होने वाली वृद्धि ने औद्योगिक श्रमिकों को पूर्व की अपेक्षा अधिक बेहतर तरीके से संगठित किया।

नेहरू और बोस जैसे भारतीय राष्ट्रीय नेताओं द्वारा समर्थन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के माध्यम से श्रमिकों की वृहद् स्तरीय राजनीतिक भागीदारी ने श्रमिकों के आंदोलन को अधिक सुदृढ़ किया।

श्रमिकों के अधिकारों की पक्षधर, साम्यवादी और समाजवादी वैश्विक शक्तियों ने भी भारत में श्रमिक आंदोलनों को बढ़ावा दिया।

Answered by yash1995choudhary
1

Answer:

पर ये तो वह अपने घर में भी है कि इस बार का सावन के झूले सिर्फ मैं जागूँगा में एक सवाल ह

Similar questions