६)स्वयं प्रकाश की रचना है?
लखनवी अंदाज
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0 स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतकों का उडन
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स्वयं प्रकाश (अंग्रेज़ी: Swayam Prakash) हिन्दी साहित्यकार हैं। वे मुख्यतः हिन्दी कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उनका जन्म 20 जनवरी 1947 को हुआ था । कहानी के अतिरिक्त उन्होंने उपन्यास तथा अन्य विधाओं को भी अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। वे हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में साठोत्तरी पीढ़ी के बाद के जनवादी लेखन से सम्बद्ध रहे हैं।
आजीविका के लिए मेकेनिकल इंजीनियरिंग, शिक्षा से एम.ए. (हिन्दी,1977) तथा पीएच.डी.(1980) एवं कथा-लेखन की एक लम्बी समर्पित पारी से सम्बद्ध स्वयं प्रकाश का जीवनानुभव बहुआयामी रहा है।
1969 में पहली कहानी लिखने वाले स्वयं प्रकाश इससे पहले कविताएँ लिखते थे और मंचों पर सस्वर काव्य पाठ भी करते थे। उनके पिता अजमेर में रहते थे। वहीं प्रसिद्ध कथाकार रमेश उपाध्याय की सोहबत में उन्होंने कहानी लिखना प्रारंभ किया। उनके रचना-संस्कारों पर अपने ननिहाल इंदौर के उर्वर वातावरण का भी गहरा असर है जहाँ चंद्रकांत देवताले, होमी दाजी और सी के नायडू जैसे सितारे परिदृश्य में थे। यहाँ उनका बचपन बीता था। बाद में अजमेर से ही उनकी पहली पुस्तक भी प्रकाशित हुई। एक कथाकार के रूप में उनकी विशेषता थी कहानी का जनवादी स्वभाव और कला की ऐसी बारीक बुनावट कि अनुभववाद भी मुंह देखता रह जाए। 'सूरज कब निकलेगा' राजस्थान के मारवाड़ इलाके में 70 के दशक में आयी बाढ़ पर लिखी गयी कहानी थी जिसे एक अखबारी सूचना की तरह उन्होंने ग्रहण किया और कला के रूप में जिसकी प्रस्तुति आज भी इस तरह चौंकाती है कि पाठक भूल न सके।
राजस्थान उनकी कहानियों में बोलता है। उनके देशी पात्र अपने रूप-रंग-आभा में अपने बुनियादी भाषा-संस्कार कभी नहीं भूलते। उनकी कहानी पढ़ने से अधिक सुनने की चीज़ होती है तो उसका कारण यही है कि कहन का जातीय स्वभाव उन्होंने प्रयत्न पूर्वक अर्जित किया है। ऐसा हँसता-खिलखिलाता गद्य कि उसमें छिपी सोद्देस्यता कभी तैरती हुई न दिखाई दे। विचारधारा का ऐसा सटीक प्रयोग कि पाठक को कहानी की परिणति असहज न लगे। यह कौशल हर कहानीकार के पास नहीं होता। स्वयं प्रकाश ने जब कहानियाँ लिखना प्रारंभ किया था तब हिन्दी कहानी नयी कहानी के अभूतपूर्व उल्लास के बाद कहानी-आन्दोलनों की अराजकता के बोझ से चरमरा रही थी। किसिम-किसिम के आंदोलनों ने पाठकों को कहानी से दूर कर दिया था। उस दौर में काशीनाथ सिंह, असग़र वजाहत, संजीव, पंकज बिष्ट, उदय प्रकाश, अरुण प्रकाश जैसे कथाकारों के साथ स्वयं प्रकाश ने कहानी को फिर जनवादी तेवर दिये। कहानी मानो सजीव हो उठी और पात्र अपने गाँव-देहात की भाषा-बोली में अपने दुःख-दर्द साझा करने लगे। स्वयं प्रकाश इस दौर में मध्यवर्ग की शक्ति और संभावनाओं को देख रहे थे और उसे बखूबी अभिव्यक्त कर रहे थे। इस वर्ग की कमियों-कमजोरियों और छद्म को उघाड़ना उन्हें आता था लेकिन इस वर्ग से उनकी उम्मीद समाप्त नहीं हो गयी थी। उनकी कहानियाँ 'तीसरी चिट्ठी' या 'बाबूजी का अंतिम भाषण' भारत के विशाल मध्यवर्ग के प्रति आशा का उजास ही तो हैं।
उन्होंने राजस्थान में रहते हुए भीनमाल से अपने मित्र मोहन श्रोत्रिय के साथ लघु पत्रिका 'क्यों' का संपादन-प्रकाशन किया तो 'फीनिक्स', 'चौबोली' और 'सबका दुश्मन' जैसे नाटक भी लिखे। उनका प्रसिद्ध उपन्यास 'बीच में विनय' भीनमाल के परिवेश पर ही लिखा गया है। इससे पहले वे अपने सैन्य जीवन के अनुभवों पर एक उपन्यास 'जलते जहाज पर' लिख चुके थे। इधर के वर्षों में उनकी रचनाशीलता में परिवर्तन हुए और उन्होंने बदल रहे भारतीय समाज को अपने लेखन में देखने-समझने की भरपूर कोशिश की। उनका उपन्यास 'ईंधन' भूमंडलीकरण की वृहद् परिघटना का भारतीय समाज पर पड़ रहे प्रभावों का अध्ययन करने वाला पहला हिन्दी उपन्यास है तो उत्तर आधुनिक हो-हल्ले के बीच कहानी को ठेठ जन-सामान्य तक जोड़ने के प्रयास में उन्होंने 'जंगल का दाह', 'गौरी का गुस्सा', 'बाबूलाल तेली की नाक' और 'कान-दाँव' जैसी कहानियाँ लिखीं।
अपनी नौकरी के दौरान वे कुछ वर्षों तक चित्तौड़गढ़ में रहे थे। तब वे हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड में अधिकारी थे। यहाँ रहते हुए उन्होंने अपना उपन्यास 'ईंधन' लिखा था। एक तरफ देश भर में निजीकरण और उदारीकरण का शोर था वहीं खुद उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के अपने उपक्रम हिंदुस्तान ज़िंक लिमिटेड का निजीकरण देखा। 'जो बचा रहा' का चित्तौड़गढ़ अध्याय इस निजीकरण की घटना का हिन्दी साहित्य में किया गया पहला और एकमात्र अंकन है।