स्वयं शब्द का व्याकरणिक कोठी बताइए
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what is the question I dont understand the question
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व्याकरणिक कोटियों का अभिनवकृत दार्शनिक उपयोग[1]
-डा. बलराम शुक्ल सूत्राम्भसं पदावर्तं पारायणरसातलम् । धातूणादिगणग्राहं ध्यानग्रहबृहत्प्लवम्
धीरैरालोकितप्रान्तं अमेधोभिरसूयितम् । सदोपभुक्तं सर्वाभिरन्यविद्याकरेणुभिः ॥
नापारयित्वा दुर्गाधममुं व्याकरणार्णवम्। शब्दरत्नं स्वयंगम्यम् अलं कर्तुमयं जनम्[2] ॥
भारतीय ज्ञान परम्परा में असंख्य विद्वानों की शृंखला के मध्य अनेक महान् विद्वान् प्रकाश स्तम्भ की भाँति विद्यमान हैं जिनकी आभा, सहस्राब्दियों का समय बीत जाने के बाद भी; उनके स्थानों में आमूलचूल सामाजिक परिवर्तन हो जाने के बावजूद, मन्द नहीं पड़ सकी है। महर्षि वेदव्यास, आचार्य पाणिनि तथा भगवान् शंकराचार्य के साथ महामाहेश्वर अभिनवगुप्तपादाचार्य ऐसे ही महापुरुषों में से एक हैं। आचार्य पाणिनि सीमान्त प्रान्त के शलातुर ग्राम (सम्भवतः आधुनिक लाहौर) के निवासी थे। उन्होंने अष्टाध्यायी की रचना की जो भारत की सांस्कृतिक एकता की मूल भाषा संस्कृत को ठीक ठीक समझने में हजारों साल तक उपयुक्त होती रही है। लाहौर अब हमारे पास नहीं है लेकिन अष्टाध्यायी अब भी हमें अपनी सांस्कृतिक निधि को सुरक्षित करने में निरन्तर सहयोग कर रही है। अभिनव गुप्त आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले कश्मीर में वर्तमान थे। उन्होंने अद्वैत दर्शन के जिस काश्मीर संस्करण का व्याख्यान किया वह भारत की दार्शनिक स्मृति में अमिट है। उनके द्वारा काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों के बारे दी गयी व्याख्यायें आज तक अन्तिम मानी जा रही हैं। आज शारदादेश कश्मीर का पर्याय नहीं है। भारत की अखण्ड सांस्कृतिक भावना भी वहाँ धूमिल हो रही है, लेकिन वहाँ से उपजे अभिनवगुप्त और उनके सिद्धान्त अब भी अक्षुण्ण हैं। यह दुस्संयोग ही है कि प्रस्तुत पत्र में चर्चा के विषय पाणिनि तथा अभिनव दोनों ही अपनी ज़मीन पर अपदस्थ हो चुके हैं। वहाँ उनको समझने की बात छोड़ दें उनका नामलेवा कोई नहीं रहा। लेकिन फिर भी, राजनैतिक कुचक्र सरस्वतीपुत्रों के माहात्म्य को ऐकान्तिक रूप से समाप्त नहीं कर पाये हैं।