संयोजकता बंध सिद्धांत समझाइए बीएससी फर्स्ट ईयर क्वेश्चन
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संयोजकता बंध सिद्धांत संकुलों के गुणों को स्पष्ट करने वाला एक सरल सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार संक्रमण धातु संकुलों के रंग तथा चुंबकीय आघूर्ण संकुल के धातु आयन में उपस्थित अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों के कारण होती है।
संयोजकता बंध सिद्धांत को सर्वप्रथम हिटलर व लंदन ने तरंग यांत्रिकी के आधार पर समझाया।
पॉलिग तथा स्लेटर ने V.B.T में अनुनाद संकरण तथा दिशात्मक गुण को समझाया। अत: इसे HLPS सिद्धांत भी कहते है।
इसके मुख्य बिन्दु निम्न है –
1. सहसंयोजक बंध बनने में केवल बाह्यतम कोश में electron ही भाग लेते है।
2. प्रत्येक बंधित परमाणु की अपनी अलग पहचान होती है।
3. परमाणुओ के मध्य बंध बनने पर प्रयुक्त electron अपनी पहचान खो देते है।
4. बंध के electrons का दोनों परमाणुओं के मध्य आदान प्रदान होता रहता है जिससे बंध का स्थायित्व बढ़ जाता है।
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Answer:
संयोजकता कोश इलेक्ट्रॉन युक्त प्रतिकर्षण ( VSEPR ) सिद्धान्त से सरल अणुओं की आकृति की जानकारी तो प्राप्त जाती है लेकिन सैद्धान्तिक रूप से इनकी व्याख्या नहीं की जा सकती है अत : इन कमियों को दूर करने के लिए निम्नलिखित दो सिद्धान्त दिए गए जो क्वान्टम यांत्रिकी ( Quantum mechanics ) पर आधारित हैं ।
Explanation:
संयोजकता बंध सिद्धांत को अंग्रेजी में Valence Bond Theory कहा जाता है। या सक्षिप्त रूप में VBT थ्योरी भी कह देते है। संयोजकता बन्ध सिद्धांत का प्रतिपादन लाइनस पॉलिंग तथा जे. एल. सलेटर ने 1935 में किया था। यह सिद्धांत आद्य अवस्था के मध्य धातु आयन का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास, बन्धन के प्रकार तथा प्राप्त संकुल की ज्यामिति एवं उनके चुम्बकीय गुणों की व्याख्या करने में समर्थ है।
संयोजकता बंध सिद्धांत के मुख्य बिंदु
- जब दो परमाणु एक दूसरे के निकट आते हैं , तो उनके कक्षक एक दूसरे पर अतिव्यापित होते हैं और सहसंयोजक बन्ध का निर्माण करते हैं ।
- कक्षक जिनमें विपरीत चक्रण वाले अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित होते हैं एक दूसरे को अतिव्यापित करते हैं ।
- अतिव्यापन के बाद नया व्यवस्थित बन्धीय कक्षक बनता है जिसमें इलेक्ट्रॉन के पाये जाने की सम्भावना अधिकतम होती है ।
- एकत्रित इलेक्ट्रॉनों व नाभिक के मध्य विद्युतस्थैतिक आकर्षण के कारण व विपरीत चक्रण वाले इलेक्ट्रॉनों के द्वारा सहसंयोजक बन्ध का निर्माण होता है ।
- अतिव्यापन का परिमाण अधिक होने पर , बन्ध लम्बाई कम होगी तथा आकर्षण जितना अधिक होगा बन्ध ऊर्जा व बन्ध का स्थायित्व भी उतना ही अधिक होगा ।
- अतिव्यापन का परिमाण अतिव्यापन में भाग लेने वाले कक्षक व अतिव्यापन की प्रकृति पर निर्भर करता है ।
- यदि संयोजी कोश नाभिक के अधिक पास होगें तो उनकी बन्ध ऊर्जा व अतिव्यापन भी अधिक होगा ।
- दो उपकोशों के समान ऊर्जा स्तर के मध्य यदि उपकोश अधिक दिशात्मक है तो उनके मध्य अतिव्यापन अधिक होगा । बन्ध ऊर्जा : 2s – 2s > 2s – 2p > 2p – 2p
- s-कक्षक सममित गोलाकार होते हैं , इसलिए यह केवल शीर्षस्थ अतिव्यापन ( head on overlapping ) दर्शाते हैं जबकि p -कक्षक दिशात्मक होने के कारण शीर्षस्थ व पार्वीय दोनों में से किसी भी प्रकार का अतिव्यापन प्रदर्शित कर सकते हैं । विभिन्न प्रकार के अतिव्यापन सिग्मा (σ) एवं पाई (π) बन्ध देते हैं ।
संयोजकता बंध सिद्धांत की सीमाएं:
1. यह सिद्धांत चार उप-सहसंयोजक संख्या के संकुलों की ज्यामिति की भविष्यवाणी करने में असफल है।
2. VBT सभी उपसहसंयोजक यौगिकों के स्पेक्ट्रा की व्याख्या नहीं कर सकता है, क्योंकि इसमें संकुलों या उनके केंद्रीय धातु परमाणु की उत्तेजित अवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
3. VBT द्वारा संकुलों में विकृति नहीं समझायी जा सकती है। उदाहरणार्थ सभी Cu (II) तथा Ti संकुल विकृत होते हैं।
4. VBT में संकुलों या उनके धातु परमाणु की उत्तेजित अवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। अतः यह उष्मागतिक गुणों की व्याख्या नहीं कर सकता।
5. VBT में धातु आयन की प्रकृति पर अधिक बल दिया गया है, जबकि लीगेण्डों के महत्व की नितांत उपेक्षा की गयी है।
6. VBT द्वारा बाह्य कक्षक संकुलों की आयनिक प्रकृति का उचित स्पष्टीकरण नहीं मिलता है।
7. Cr (III) तथा आंतर कक्षक Co (III) अष्टफलकिय संकुलों को गतिक अक्रियता का VBT से सहीं उत्तर नहीं मिलता है अर्थात इस सिद्धांत द्वारा अभिक्रिया की गति तथा उनकी क्रियाविधि का स्पष्टीकरण नहीं होता है।
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