संयुक्त परिवार में नायक का पात्र
Answers
Answer:
जब किसी संयुक्त परिवार में दरारें पड़ने लगती हैं, तो पड़ोसियों की मौज हो जाती है. उन्हें गपशप का मौका मिल जाता है. धीरे-धीरे घरेलू झगड़े दरारों से रिसने लगते हैं और गली में चाय की दुकान पर अटकलबाजी का मसाला बन जाते हैं. फिर बाजियां लगने लगती हैं: आखिर ये भाई एक छत के नीचे कब तक रहेंगे? जब घर का मुखिया कहता है कि कोई गड़बड़ नहीं, सब ठीक है, तो दूसरी ओर खड़ा व्यक्ति बड़ा विनम्र बना रहता है. हालांकि पीठ पीछे उसका मजाक जहर से कम नहीं होता.
कोई राजनैतिक मुखिया जनता के गुस्से को झेल सकता है, चाहे वह कितना ही मारक क्यों न हो. लेकिन सत्ता में बैठा कोई भी अपनी जगहंसाई नहीं देख सकता. चाकू-छुरी से कहीं ज्यादा मारक कार्टून होते हैं. यूपीए2 सरकार के सामने तात्कालिक खतरा उसके पतन का नहीं है, बल्कि उसका जो मजाक बनाया जा रहा है, उससे धीरे-धीरे होने वाले क्षरण का है. तीन साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राष्ट्रीय नायक हुआ करते थे, लेकिन आज एसएमएस जोक्स की दुनिया के सुपरस्टार हैं.
अगर कोई मूर्ख अचानक सामान्य बात करने लगे, तो लोग उसकी प्रशंसा करने लगते हैं. इसके उलट अगर कोई हीरो स्टंट करते वक्त फिसल जाए, तो उसका आकलन उन शिखरों से किया जाता है जिन्हें वह कभी फतह कर चुका होता है. जिस मतदाता ने 2009 में डॉ. सिंह को इसलिए चुना था कि वे कंचनजंगा की चोटी जीत चुके थे, उसने यह उम्मीद भी की थी कि 2012 तक वे एवरेस्ट तक पहुंच जाएंगे. इसकी बजाए मतदाताओं को पलट कर कह दिया गया है कि योजना बदल दी गई है, आइए बैठकर इस मंदी का आनंद लें क्योंकि हमारा दूरसंचार वाला आदमी पैसा लेकर भाग गया है और आजकल तिहाड़ में छुट्टियां बिता रहा है.
मतदाता के भ्रम की कोई एक वजह नहीं. उसने एक बार नहीं, कई बार स्पष्ट जनादेश दिया है, जानकारों को गलत साबित किया है और नेताओं को चौंकाया है. उसे बदले में एक मजबूत सरकार चाहिए. हो यह रहा है कि जीतने वाला ऐसे बरताव कर रहा है, जैसे कि जीत हासिल करके वह कमजोर हो गया है. यह खतरनाक बीमारी अकेले कांग्रेस को नहीं, दूसरों को भी है.
कर्नाटक में भाजपा ने ऐतिहासिक जनादेश का अपमान अपनी ओछी मानसिकता के प्रदर्शन से कर डाला है. आंध्र में देखिए, जहां कांग्रेस ने पहले तो अपना विपक्ष खत्म किया और फिर खुद को खत्म कर डाला. पी. चिदंबरम पहले तेलंगाना के मसले पर खूब उलटे-पलटे, फिर बैठ ही गए.
राजशेखर रेड्डी की मौत एक हादसे में हो गई, तो पार्टी ने पहले तो एक बूढ़ा उत्तराधिकारी थोप दिया, उसके बाद उससे कुछ युवा नेतृत्व थोपा गया जिसने अभी-अभी अपनी तनख्वाह 400 प्रतिशत बढ़ा ली है. राजशेखर रेड्डी के साथ प्रशासन की भी मौत हो गई. उसके बाद कांग्रेस ने ऐसा बुझौवल खेला और इतने मूर्खतापूर्ण तरीके से खेला कि मतदाता अब हंस रहा है तो उसके आंसू निकल रहे हैं.
अखिलेश यादव को देखिए, आखिर इन्होंने इतने शानदार जनादेश का क्या किया? समझौते का इससे ज्यादा हास्यास्पद प्रतीक और कुछ नहीं हो सकता कि कैद में रहे नेता को कोतवाल बना दिया जाए. हो सकता है कि अखिलेश मजाकिया किस्म के शख्स हों, लेकिन अगर यह मजाक है, तो निहायत भद्दा है. मतदाता उस अखिलेश को चाहता है जिसने बाहुबली डी.पी. यादव को टिकट नहीं दिया था, उसे नहीं जो सिर्फ मुस्कुराता रहा जबकि उसके सामने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मंत्री पद की शपथ लेते रहे.
बहरहाल, अखिलेश के पास अब भी वक्त है और उनका असली इम्तहान पहली नहीं, उनकी दूसरी कैबिनेट होगी. फिलहाल, तो उन्हें अपनी विरासत और उत्तराधिकार के हिसाब से चीजों को संयोजित करना है. लेकिन उनके पास बहुत ज्यादा वक्त नहीं है क्योंकि भारतीय लोकतंत्र अब अपने सबसे संवेदनशील चरण में पहुंच चुका है.
कमजोर और मजबूत सरकार का अंतर अब जटिल नहीं रहा. इसे समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण काफी होगा. जब द्रमुक ने लिट्टे के खिलाफ जंग के आखिरी चरण में श्रीलंकाई नागरिकों के उत्पीड़न पर संयुक्त राष्ट्र में भारतीय पक्ष पर प्रधानमंत्री को ब्लैकमेल किया था, तो डॉ. सिंह के पास समझौते और तर्क के बीच स्पष्ट विकल्प था. वे चाहते तो द्रमुक की चिंताओं से सहानुभूति जताते हुए सरकार में अपने सहयोगियों के साथ विकल्पों पर बातचीत कर सकते थे. उन्हें यह स्पष्ट कहने की जरूरत नहीं थी कि भारत की विदेश नीति को गठबंधन की मजबूरियों का बंधक नहीं बनाया जा सकता. लेकिन वे द्रमुक के नजरिए के आगे 'झुक' गए. बाद में काफी सोच-विचार कर डॉ. सिंह ने कह डाला कि यूपीए के उनके सहयोगी एक सिरदर्द हैं.
दरअसल, डॉ. सिंह की बीमारी उनके सहयोगियों की करतूत नहीं, बल्कि खुद उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी ने उनका मजाक बना रखा है. उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार के दौरान कुछ कैबिनेट मंत्रियों ने दम भरा था कि गद्दी तो राहुल गांधी की ही है, वो तो डॉ. सिंह उस पर बैठाए गए हैं जिन्हें कभी भी हटाया जा सकता है. प्रधानमंत्री इस पर चुप रहे. सोनिया गांधी ने भी कुछ नहीं किया. सोचिए, यदि उन्होंने यह मांग कर डाली होती कि डॉ. सिंह को सोनिया गांधी की जगह कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए, तो कितनी देर वे बचे रह पाते.
ऐसा नहीं कि अचानक हुए किसी विस्फोट में कोई गठबंधन लुप्त हो जाता है, बल्कि एक विशाल अग्निकांड की ख्वाहिश में धीरे-धीरे उठती लपटें उसे कमजोर करती हैं. चाहे वह दिल्ली में कांग्रेस हो या कर्नाटक में भाजपा, सभी राजनैतिक पार्टियां खुद को दिलासा देती रहती हैं कि वक्त और सत्ता की अहमियत से विनाश को दूर रखा जा सकता है.
यदि सत्ताधारी अब जनता के पास चल कर नहीं गए, तो वे अपना नैतिक आधार गंवा देंगे. फिर जनता खुद उनके पास चल कर आ जाएगी. बताने की जरूरत नहीं कि ज्यादा मारक कौन-सी स्थिति है.
एक दिन एक विदेशी मित्र ने लंच पर मुझसे भारत सरकार के बारे में पूछा था. मैंने उनसे कहा कि इतना तो तय है कि भारत है, लेकिन मैं इसी दावे के साथ यह नहीं कह सकता कि भारत में कोई सरकार भी है.