saadhu vaswani short nibandh in hindi
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साधु वासवानी का जन्म हैदराबाद में २५ नवम्बर १८७९ में हुआ था। अपने भीतर विकसित होने वाली अध्यात्मिक प्रवृत्तियों को बालक वासवानी ने बचपन में ही पहचान लिया था। वह समस्त संसारिक बंधनों को तोड़ कर भगवत भकि्त में रम जाना चाहते थे परन्तु उनकी माता की इच्छा थी कि उनका बेटा घर गृहस्थी बसा कर परिवार के साथ रहे। अपनी माता के विशेष आग्रह के कारण उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उनके बचपन का नाम थांवरदास लीलाराम रखा गया। सांसारिक जगत में उन्हें टी. एल. वासवानी के नाम से जाना गया तो अध्यात्मिक लोगों ने उन्हें साधु वासवानी के नाम से सम्बोधित किया।
उन्होंने वर्ष १९०२ में एम.ए.की उपाधि प्राप्त करके विभिन्न कॉलेजों में अध्यापन का कार्य किया। फिर टी.जी.कॉलेज में प्रोफ़ेसर नियुक्त किए गए। लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज, कूच बिहार के विक्टोरिया कॉलेज और कलकत्ता के मेट्रोपोलिटन कॉलेज में पढ़ाने के पश्चात वे १९१६ में पटियाला के महेन्द्र कॉलेज के प्राचार्य बने। उन्होने कलकत्ता कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में काम किया और उसके बाद स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उन्होने कई पुस्तकों की भी रचना की।
साधु वासवानी ने जीव हत्या बंद करने के लिए जीवन पर्यन्त प्रयास किया। वे समस्त जीवों को एक मानते थे। जीव मात्र के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम था। जीव हत्या रोकने के बदले वे अपना शीश तक कटवाने के लिए तैयार थे। केवल जीव जन्तु ही नहीं उनका मत था कि पेड़ पौधों में भी प्राण होते हैं। उनकी युवको को संस्कारित करने और अच्छी शिक्षा देने में बहुत अधिक रूचि थी। वे भारतीय संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता के अनन्य उपासक थे। उनका मत था कि प्रत्येक बालक को धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए। वे सभी धर्मों को एक समान मानते थे। उनका कहना था कि प्रत्येक धर्म की अपनी अपनी विशेषताएं हैं। वे धार्मिक एकता के प्रबल समर्थक थे।
३० वर्ष की आयु में वासवानी भारत के प्रतिनिधि के रूप में विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए बर्लिन गए। वहां पर उनका प्रभावशाली भाषण हुआ और बाद में वह पूरे यूरोप में धर्म प्रचार का कार्य करने के लिए गए। उनके भाषणों का बहुत गहरा प्रभाव लोगों पर होता था। वे मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें सुनते रहते थे। वे बहुत ही प्रभावषाली वक्ता थे। जब वे बोलते थे तो श्रोता मंत्र मुग्ध हो कर उन्हें सुनते रहते थे। श्रोताओं पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। 16 जनवरी 1966 को उनका निधन हो गया।
भारत के विभिन्न भागों में निरन्तर भ्रमण करके उन्होंने अपने विचारों को लागों के सामने रखा और उन्हें भारतीय संस्कृति से परिचित करवाया।