saar of guru updesh
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भगवान् रमण महर्षि उन दुर्लभ ज्ञानियों में से एक हैं जिन्हें 16 वर्ष की अल्पायु में बिना किसी साधना और बिना किसी गुरु के, ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। ऐसे उदाहरण मानव इतिहास में गिने चुने हैं। रमण महर्षि के बारे में आम धारणा है कि उनकी शिक्षाएँ मात्र गम्भीर एवं परिपक्व साधकों का मार्गदर्शन करती हैं। इस धारणा के विपरीत हम पाते हैं कि महर्षि की बहुचर्चित पुस्तक 'उपदेश सार' कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और अष्टांग योग (राजयोग) के हर पहलू पर प्रकाश डालती है।
श्री मुरुगनार के विशेष अनुरोध पर रमण महर्षि ने 30 छन्द की तमिल में रचना की जिसे 'उपदेश उंदियार' के नाम से जाना जाता है। उपदेश उंदियार के तमिल में लिखे जाने के बाद योगी रामय्या ने इसे तेलुगु में लिखने का आग्रह किया क्योंकि वे तमिल नहीं जानते थे। इसके बाद संस्कृत के महान् विद्वान् काव्यकण्ठ गणपति मुनि 'नायना' ने वैसा ही आग्रह संस्कृत में लिखने के लिए किया। तब महर्षि ने इसे संस्कृत में 'उपदेश सारः' के रूप में लिखा। इन तीन भाषाओं में लिखने के बाद कुंजुस्वामी, रामकृष्ण तथा अन्य ने इन उपदेशों को मलयालम् में लिखने की प्रार्थना की। इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि भक्तों के विशेष अनुरोध पर भगवान् रमण महर्षि ने स्वयं किस तरह से क्रमशः चार भाषाओं में उपदेश सार की रचना की। आश्रम द्वारा प्रकाशित सैकड़ों पुस्तकों में से 'मैं कौन हूँ?' के बाद उपदेश सार सबसे प्रचलित पुस्तक है, यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भगवान् की समाधि पर प्रतिदिन सायं साढ़े पाँच बजे वेद पाठशाला के बालकों द्वारा उपदेश सारः का संस्कृत में सस्वर मधुर पाठ होता है।
भगवान् शिव ने दारुका वन में सिद्धि प्राप्त कर्मकाण्डी तपस्वियों का अहंकार नष्ट करने के लिए जो शिक्षाएँ दीं उन्हीं का समावेश उपदेश सार में है। दक्षिण भारत की तीन महत्त्वपूर्ण भाषाओं और संस्कृत के संस्करण के अलावा उपदेश सार का अंग्रेज़ी में भी कई विद्वानों ने अनुवाद किया है। आश्रम हर्ष के साथ सूचित करता है कि यह ग्रन्थ अब जनप्रिय भाषा हिन्दी में भी उपलब्ध है।