Hindi, asked by NehaBari, 8 months ago

सच बोलने की भूल कहानी का सारांश​

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Answered by Anonymous
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शरद के आरम्भ में दफ्तर से दो मास की छुट्टी ले ली थी। स्वास्थ्य सुधार के लिए पहाड़ी प्रदेश में चला गया था। पत्नी और बेटी भी साथ थीं। बेटी की आयु तब सात वर्ष की थी। उस प्रदेश में बहुत छोटे-छोटे पड़ाव हैं। एक खच्चर किराये पर ले लिया था। असबाब खच्चर पर लाद लेते थे और तीनों हँसते-बोलते, पड़ाव-पड़ाव पैदल यात्रा कर रहे थे। रात पड़ाव की किसी दूकान पर या डाक-बँगले में बिता देते थे। कोई स्थान अधिक सुहावना लग जाता तो वहाँ दो रात ठहर जाते।

एक पड़ाव पर हम लोग डाक बंगले में ठहरे हुए थे। वह बंगला छोटी-सी पहाड़ी के पूर्वी आँचल में है। बँगले के चौकीदार ने बताया—साहब लोग आते हैं तो चोटी से सूर्यास्त का दृश्य जरूर देखते हैं। चौकीदार ने बता दिया कि बँगले के बिलकुल सामने से ही जंगलाती सड़क पहाड़ी तक जाती है।

पत्नी सुबह आठ मील पैदल चल चुकी थी। उसे संध्या फिर पैदल तीन मील चढ़ाई पर जाने और लौटने का उत्साह अनुभव न हुआ परन्तु बेटी साथ चलने के लिए मचल गई।

चौकादीर ने आश्वासन दिया—लगभग डेढ़ मील सीधी सड़क है और फिर पहाड़ी पर अच्छी साफ पगडंडी है। जंगली जानवर इधर नहीं हैं। सूर्यास्त के बाद कभी-कभी छोटी जाति के भेड़िये जंगल से निकल आते हैं। भेड़िये भेड़-बकरी के मेमने या मुर्गियाँ उठा ले जाते हैं, आदमियों के समीप नहीं आते।

मैं बेटी को साथ लेकर सूर्यास्त से तीन घंटे पूर्व ही चोटी का ओर चल पड़ा। सावधानी के लिए टार्च साथ ले ली। पहाड़ी तक डेढ़ मील रास्ता बहुत सीधी-साफ था। चढ़ाई भी अधिक नहीं थी। पगडंडी से चोटी तक चढ़ने में भी कुछ कठिनाई नहीं हुई।

पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर पश्चिम की ओर बर्फानी पहाड़ों को श्रृंखलाएं फैली हुई दिखाई दीं। क्षितिज पर उतरता सूर्य बरफ से ढँकी पहाड़ी की रीढ़ को छूने लगा तो ऊँची-नीची, आगे–पीछे खड़ी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएं अनेक इन्द्रधनुषों के समान झलमलाने लगीं। हिम के स्फटिक कणों की चादरों पर रंगों के खिलवाड़ से मन उमग-उमग उठता था। बच्ची उल्लास से किलक-किलक उठती थी।

सूर्यास्त के दृश्य का सम्मोहन बहुत प्रबल था परन्तु ध्यान भी था—रास्ता दिखाई देने योग्य प्रकाश में ही डाक बँगले को जाती जंगलाती सड़क पर पहुँच जाना उचित है। अँधेरे में असुविधा हो सकती है।

सूर्य आग की बड़ी थाली के समान लग रहा था। वह थाली बरफ की शूली पर, अपने किनारे पर खड़ी वेग से घूम रही थी। आग की थाली का शनैः-शनैः बरफ के कंगूरों की ओट में सरकते जाना बहुत ही मनोहारी लग रहा था। हिम के असम विस्तार पर प्रतिक्षण रंग बदल रहे थे। बच्ची उस दृश्य को विश्मय से मुँह खोले देख रही थी। दुलार से समझाने पर भी वह पूरे सूर्य के पहाड़ी की ओट में हो जाने से पहले लौटने के लिए तैयार नहीं हुई।

सहसा सूर्यास्त होते ही चोटी पर बरफ की श्यामल नीलिमा फैल गयी। पहाड़ी की चोटी पर अब भी प्रकाश था पर हम ज्यों-ज्यों पूर्व की ओर नीचे उतर रहे थे, अँधेरा घना होता जा रहा था। आप को भी अनुभव होगा कि पहाड़ों में सूर्यास्त का झुटपुट उजाला बहुत देर तक नहीं बना रहता। सूर्य पहाड़ की ओट में होते ही उपत्यका में सहसा अँधेरा हो जाता है।

मैं पगडंडी पर बच्ची को आगे किये पहाड़ी से उतर रहा था। अब धुँधलका हो जाने के कारण स्थान-स्थान पर कई पगडंडियाँ निकलती फटती जान पड़ती थीं। हम स्मृति के अनुभव से अपनी पगडंडी पहचानकर नीचे जिस रास्ते पर उतरे, वह डाक बँगले की पहचानी हुई जंगलाती सड़क नहीं जान पड़ी। अँधेरा हो गया था। रास्ता खोजने के लिए चोटी की ओर चढ़ते तो अँधेरा अधिक घना हो जाने और अधिक भटक जाने की आशंका थी। हम अनुमान से पूर्व की ओर जाती पगडंडी पर चल पड़े।

जंगल में घुप्प अँधेरा था। टार्च से प्रकाश का जो गोला सा पगडंडी पर बनता था, उससे कटीले झाड़ों और ठोकर से बचने के लिए तो सहायता मिल सकती थी परन्तु मार्ग नहीं ढूँढ़ा जा सकता था। चौकीदार ने अँचल में आस-पास काफी बस्ती होने का आश्वासन दिया। सोचा—समीप ही कोई बस्ती या झोंपड़ी मिल जायेगी, रास्ता पूँछ लेंगे।

हम टार्च के प्रकाश में झाड़ियों से बचते पगडंडी पर चले जा रहे थे। बीस-पचीस मिनट चलने के बाद एक हमारा रास्ता काटती हुई एक अधिक चौड़ी पगडंडी दिखाई दे गयी। सामने एक के बजाय तीन मार्ग देखकर दुविधा और घबराहट हुई, ठीक मार्ग कौन सा होगा ? अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की अपेक्षा भटकाव का ही अवसर अधिक हो गया था। घना अँधेरा, जंगल में रास्ता जान सकने का कोई उपाय नहीं था। आकाश में तारे उजले हो गये थे परन्तु मुझे तारों की स्थिति में दिशा पहचान सकने की समझ नहीं है। पूर्व दिशा दायीं ओर होने का अनुमान था इसलिए चौड़ी पगडंडी पर दायीं ओर चल दिये। आधे घंटे चलने पर एक और पगडंडी रास्ता काटती दिखाई दी समझ लिया, हम बहुत भटक गये हैं। मैंने सीधे सामने चलते जाना ही उचित समझा।

जंगल में अँधेरा बहुत घना था। उत्तरी वायु चल पड़ने से सर्दी भी काफी हो गई थी। अपनी घबराहट बच्ची से छिपाये था। बच्ची भयभीत न हो जाये, इसलिए उसे बहलाने के लिए और उसे रुकावट का अनुभव न होने देने के लिए कहानी सुनाने लगा परन्तु बहलाव थकावट को कितनी देर भुलाये रखता ! बच्ची बहुत थक गई थी। वह चल नहीं पा रही थी। कुछ समय उसे शीघ्र ही बंगले जाने का आश्वासन देकर उत्साहित किया और फिर उसे पीठ पर उठा लिया। वह मेरे कंधे के ऊपर से मेरे सामने टार्च का प्रकाश डालती जा रही थी। मैं बच्ची के बोझ और थकावट से हाँफता हुआ अज्ञात मार्ग पर, अज्ञात दिशा में चलता जा रहा था। मेरी पीठ पर बैठी बच्ची सर्दी से सिहर-सिहर उठती थी और मैं हाँफ-हाँफ कर पसीना-पसीना हो गया था। कुछ-कुछ समय बाद मैं दम लेने के लिए बच्ची को पगडंडी पर खड़ा करके घड़ी देख लेता था। अधिक रात न हो जाने के आश्वासन से कुछ साहस मिलता था।

Answered by snegapriyasivaraman
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Answer:

सारांश

Explanation:

शरद के आरम्भ में दफ्तर से दो मास की छुट्टी ले ली थी। स्वास्थ्य सुधार के लिए पहाड़ी प्रदेश में चला गया था। पत्नी और बेटी भी साथ थीं। बेटी की आयु तब सात वर्ष की थी। उस प्रदेश में बहुत छोटे-छोटे पड़ाव हैं। एक खच्चर किराये पर ले लिया था। असबाब खच्चर पर लाद लेते थे और तीनों हँसते-बोलते, पड़ाव-पड़ाव पैदल यात्रा कर रहे थे। रात पड़ाव की किसी दुकान पर या डाक-बँगले में बिता देते थे। कोई स्थान अधिक सुहावना लग जाता तो वहाँ दो रात ठहर जाते।

एक पड़ाव पर हम लोग डाक बंगले में ठहरे हुए थे। वह बंगला छोटी-सी पहाड़ी के पूर्वी आँचल में है। बँगले के चौकीदार ने बताया—साहब लोग आते हैं तो चोटी से सूर्यास्त का दृश्य जरूर देखते हैं। चौकीदार ने बता दिया कि बँगले के बिलकुल सामने से ही जंगलाती सड़क पहाड़ी तक जाती है।

पत्नी सुबह आठ मील पैदल चल चुकी थी। उसे संध्या फिर पैदल तीन मील चढ़ाई पर जाने और लौटने का उत्साह अनुभव न हुआ परन्तु बेटी साथ चलने के लिए मचल गई।

चौकादीर ने आश्वासन दिया—लगभग डेढ़ मील सीधी सड़क है और फिर पहाड़ी पर अच्छी साफ पगडंडी है। जंगली जानवर इधर नहीं हैं। सूर्यास्त के बाद कभी-कभी छोटी जाति के भेड़िये जंगल से निकल आते हैं। भेड़िये भेड़-बकरी के मेमने या मुर्गियाँ उठा ले जाते हैं, आदमियों के समीप नहीं आते।

मैं बेटी को साथ लेकर सूर्यास्त से तीन घंटे पूर्व ही चोटी का ओर चल पड़ा। सावधानी के लिए टार्च साथ ले ली। पहाड़ी तक डेढ़ मील रास्ता बहुत सीधी-साफ था। चढ़ाई भी अधिक नहीं थी। पगडंडी से चोटी तक चढ़ने में भी कुछ कठिनाई नहीं हुई।

पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर पश्चिम की ओर बर्फानी पहाड़ों को श्रृंखलाएं फैली हुई दिखाई दीं। क्षितिज पर उतरता सूर्य बरफ से ढँकी पहाड़ी की रीढ़ को छूने लगा तो ऊँची-नीची, आगे–पीछे खड़ी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएं अनेक इन्द्रधनुषों के समान झलमलाने लगीं। हिम के स्फटिक कणों की चादरों पर रंगों के खिलवाड़ से मन उमग-उमग उठता था। बच्ची उल्लास से किलक-किलक उठती थी।

सूर्यास्त के दृश्य का सम्मोहन बहुत प्रबल था परन्तु ध्यान भी था—रास्ता दिखाई देने योग्य प्रकाश में ही डाक बँगले को जाती जंगलाती सड़क पर पहुँच जाना उचित है। अँधेरे में असुविधा हो सकती है।

सूर्य आग की बड़ी थाली के समान लग रहा था। वह थाली बरफ की शूली पर, अपने किनारे पर खड़ी वेग से घूम रही थी। आग की थाली का शनैः-शनैः बरफ के कंगूरों की ओट में सरकते जाना बहुत ही मनोहारी लग रहा था। हिम के असम विस्तार पर प्रतिक्षण रंग बदल रहे थे। बच्ची उस दृश्य को विश्मय से मुँह खोले देख रही थी। दुलार से समझाने पर भी वह पूरे सूर्य के पहाड़ी की ओट में हो जाने से पहले लौटने के लिए तैयार नहीं हुई।

सहसा सूर्यास्त होते ही चोटी पर बरफ की श्यामल नीलिमा फैल गयी। पहाड़ी की चोटी पर अब भी प्रकाश था पर हम ज्यों-ज्यों पूर्व की ओर नीचे उतर रहे थे, अँधेरा घना होता जा रहा था। आप को भी अनुभव होगा कि पहाड़ों में सूर्यास्त का झुटपुट उजाला बहुत देर तक नहीं बना रहता। सूर्य पहाड़ की ओट में होते ही उपत्यका में सहसा अँधेरा हो जाता है।

मैं पगडंडी पर बच्ची को आगे किये पहाड़ी से उतर रहा था। अब धुँधलका हो जाने के कारण स्थान-स्थान पर कई पगडंडियाँ निकलती फटती जान पड़ती थीं। हम स्मृति के अनुभव से अपनी पगडंडी पहचानकर नीचे जिस रास्ते पर उतरे, वह डाक बँगले की पहचानी हुई जंगलाती सड़क नहीं जान पड़ी। अँधेरा हो गया था। रास्ता खोजने के लिए चोटी की ओर चढ़ते तो अँधेरा अधिक घना हो जाने और अधिक भटक जाने की आशंका थी। हम अनुमान से पूर्व की ओर जाती पगडंडी पर चल पड़े।

जंगल में घुप्प अँधेरा था। टार्च से प्रकाश का जो गोला सा पगडंडी पर बनता था, उससे कटीले झाड़ों और ठोकर से बचने के लिए तो सहायता मिल सकती थी परन्तु मार्ग नहीं ढूँढ़ा जा सकता था। चौकीदार ने अँचल में आस-पास काफी बस्ती होने का आश्वासन दिया। सोचा—समीप ही कोई बस्ती या झोंपड़ी मिल जायेगी, रास्ता पूँछ लेंगे।

हम टार्च के प्रकाश में झाड़ियों से बचते पगडंडी पर चले जा रहे थे। बीस-पचीस मिनट चलने के बाद एक हमारा रास्ता काटती हुई एक अधिक चौड़ी पगडंडी दिखाई दे गयी। सामने एक के बजाय तीन मार्ग देखकर दुविधा और घबराहट हुई, ठीक मार्ग कौन सा होगा ? अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की अपेक्षा भटकाव का ही अवसर अधिक हो गया था। घना अँधेरा, जंगल में रास्ता जान सकने का कोई उपाय नहीं था। आकाश में तारे उजले हो गये थे परन्तु मुझे तारों की स्थिति में दिशा पहचान सकने की समझ नहीं है। पूर्व दिशा दायीं ओर होने का अनुमान था इसलिए चौड़ी पगडंडी पर दायीं ओर चल दिये। आधे घंटे चलने पर एक और पगडंडी रास्ता काटती दिखाई दी समझ लिया, हम बहुत भटक गये हैं। मैंने सीधे सामने चलते जाना ही उचित समझा।

जंगल में अँधेरा बहुत घना था। उत्तरी वायु चल पड़ने से सर्दी भी काफी हो गई थी। अपनी घबराहट बच्ची से छिपाये था। बच्ची भयभीत न हो जाये, इसलिए उसे बहलाने के लिए और उसे रुकावट का अनुभव न होने देने के लिए कहानी सुनाने लगा परन्तु बहलाव थकावट को कितनी देर भुलाये रखता ! बच्ची बहुत थक गई थी। वह चल नहीं पा रही थी। कुछ समय उसे शीघ्र ही बंगले जाने का आश्वासन देकर उत्साहित किया और फिर उसे पीठ पर उठा लिया। वह मेरे कंधे के ऊपर से मेरे सामने टार्च का प्रकाश डालती जा रही थी। मैं बच्ची के बोझ और थकावट से हाँफता हुआ अज्ञात मार्ग पर, अज्ञात दिशा में चलता जा रहा था। मेरी पीठ पर बैठी बच्ची सर्दी से सिहर-सिहर उठती थी और मैं हाँफ-हाँफ कर पसीना-पसीना हो गया था। कुछ-कुछ समय बाद मैं दम लेने के लिए बच्ची को पगडंडी पर खड़ा करके घड़ी देख लेता था। अधिक रात न हो जाने के आश्वासन से कुछ साहस मिलता था।

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