Hindi, asked by barshushi9132, 1 year ago

sagun and nirgun bhakti me antar

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Answered by shekhar2557
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आज के दौर में बहुत से लोग परमात्मा को सगुण रूप में पूजते है और बहुत से निर्गुण रूप में । सगुण रूप में पूजने का सीधा सीधा मतलब होता है कि हम परमात्मा को एक आकर में देखते है । आप अपनी सोच के हिसाब से परमात्मा को देखते है । हम कृष्ण को उस रूप में देखते है , जिस रूप में हमें बताया गया, दिखाया गया, चित्रित किया गया हमारे द्वारा और मूर्तिवत रूप दे दिया गया उन्हें, जिन्हें हम पूजते है। ये है सगुण पूजा -एक रूप की, आकार की, ये है सगुण साकार ब्रह्म । जब भी हम ब्रह्म को एक शरीर में मूर्त रूप में देखते है तो ये सोच ये नजर हमारी है तमोगुणी, क्योंकि सोच का धरातल शरीर है । और यदि हम प्रभु को देखते है मन के धरातल पर तो ये रजोगुणी है और यदि हम देखते है आत्मा के धरातल पर तो ये सतोगुणी है । ये अलग अलग ढंग से देखने की नजर है, आँख है प्रभु को देखने की ।

अब इसको विस्तार से समझते है । यदि हम परमात्मा को एक अस्तित्व के तौर पर सर्वत्र विद्यमान सत्ता के रूप में देखते है तभी हम अपने अंदर सोच लाते है निराकार की । एक ऐसी परम सत्ता जिसका कोई ओर-छोर नहीं, एक ऐसी सत्ता जो सर्वत्र है । यदि हमें एक खिडकी से पूरे आकाश को देखना चाहे तो क्या देख पाएंगे ? नहीं, क्योंकि वो आकार नहीं है । आपने अधूरा देखा । आप उसे पूरा देख ही नहीं सकते । आप उसमें है, आप कैसे देखेंगे अस्तित्व को । आप हाथ जितना खोलोगे आकाश उतना ज्यादा । मुट्ठी भींच लो, आकाश नहीं ।
हम मूर्ति पूजा करें, कोई मतभेद नहीं लेकिन हम जैसे-जैसे अपनी उम्र के पड़ाव को पार करते जाये साथ साथ अपने आप को उतारे उस अस्तित्व में परम के क्योंकि पहुंचना  तो सही मायने में यही है । यही तो है यात्रा परम की ।

लोग गुलाम हो गये है आदतों के । आज तक आरतियों के अंदर, घंटों की आवाजों में, उलझे है आदतन । इससे होता कुछ नहीं । क्या होगा इससे, ह्रदय परिवर्तन कैसे होगा ? परिवर्तन तब होगा जब हमारी यात्रा सगुण साकार से निर्गुण निराकार यानि ह्रदय की बने । हम इतना डूबे इसमें कि जो अमृत छिपा है अंदर, छलके वह, दिखे हमारे चेहरे पर वो तेज आनंद का और ह्रदय में अविरल बहे धारा उस परम आनद की । गीता में प्रभु ने स्वयं कहा है मै सगुण भी हूँ और निर्गुण भी क्योंकि जिस सगुण के तुम उपासक हो वह भी तो अस्तित्व का एक हिस्सा ही है । कैसे अलग है वह अस्तित्व से । हम यदि गुलाब के हजारों फूलों को निचोड़ के इत्र बनाये, वह है समाधि की अवस्था ।

हमें जरुरत है अभिप्सा की, एक ऐसी प्यास की, जो कभी खत्म न हो । एक ऐसी तड़प, परमात्मा को पाने की, जो सदा हमें दिलाये एहसास उसके करीब होने का हर पल हर साँस में घटे वो हममें ।

गीता में प्रभु कहते है कि अगर देखने की नजर रखता है तो देख कुछ भी अलग अलग नहीं है । ना सांख्य-योग ना कर्म योग, ना भक्ति योग । सब एक ही तो है । नजर बना देखने की । अगर कोई कर्त्ता है ही नहीं तो परमात्मा की तरफ किस रास्ते से पहुंचे वह, ये फैसला भी तो परमात्मा का ही है । वह कुछ करता ही नहीं, करवा तो प्रभु रहे है । आदमी अपने जीवन में ये मानना शुरू कर देता है कि वह कर्त्ता है तब वह सत्य से दूर असत्य को गले लगाता है जो ये मानता है कि यात्रा तेरी, मै तेरा, समा ले मेरे छोटे से दिये की टिमटिमाती लौ को अपने परम प्रकाश में । सोच उसकी ही सही है । सत्य साथ है उसके, क्योंकि वह किसी भी तरह के बंधन में नहीं है । भला-बुरा सब तुझे अर्पण, मै हूँ नहीं कुछ, न श्रेष्ठ, न दीन, हर दम एक सा, जैसा हूँ, तेरा हूँ । सारा खेल भाव का है । कैसे याद करें हम उसको ? किस श्रेणी का बनाया हमने अपने आपको, प्रभु ने क्या पात्रता मांगी थी हमसे, सिर्फ इतना ही तो, जैसा भेजा था इस दुनिया में निर्दोष वैसे ही बने रहे हम । सब खो दिया हमने । हम अपने आपको बुद्धिमान कहते है । कहाँ है बुद्धिमता ? सब कुछ धीरे-धीरे अवगुणों से ढँक दिया हमने ।

प्रभु की लीला है सगुण और निर्गुण । इसको हम एक तरीके से और कह सकते है कि सब ‘भाव’ चित्त का है । जैसी जिसकी पात्रता वैसा उसका दर्जा । जब श्रीराम ने लंका पर चढाई करने का विचार बनाया तो उससे पहले कहा उन्होंने कि यज्ञ और अनुष्ठान करने है और इसके लिए एक ब्राह्मण की आवश्यकता है जो श्रेष्ठ हो । जानकारी आई कि इस क्षेत्र का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण है रावण। अब रावण को सन्देश भेजा गया कि श्रीराम लंकापति रावण को परास्त करने के लिए, चढाई करने के लिए पुल का निर्माण करना चाहते है और इसके अनुष्ठान और यज्ञ के लिए ब्राह्मण रावण को बुलावा देते है । रावण के पास सन्देश भेजा गया । स्वीकार किया रावण ने । कहा, कह दो यजमान से, अवश्य पहुंचेंगे । पहुंचा रावण, कराया उसने अनुष्ठान और यज्ञ इतने विधि विधान और तरीके से कि जब यज्ञ का प्रसाद दिया उसने श्रीराम को तब कहा श्रीराम ने आपने जिस अति उत्तम तरीके से विधि पूर्वक निर्दोष इस यज्ञ को करवाया उसके लिए मै आपको प्रणाम करता हूँ । ब्राह्मण रावण ने आशीर्वाद दिया श्रीराम को सफलता का । मतलब अपने ही संहार का, अपने पर ही विजय का । ये सब लीला थी प्रभु की, एक सन्देश था जनमानस के लिए । कर्त्ता का क्या मतलब है, सब कुछ तो लीला है प्रभु की । सिर्फ कर्म करने का अधिकार है हमें, वह भी अकर्त्ता बनकर, यही सच है ।

हमेशा करे हम सगुण से निर्गुण की यात्रा यानि शरीर से आत्मा की ओर चलें हम जिये उस अनुभूति में उस परम को हर पल हर क्षण। 



shekhar2557: please follow me
Answered by Priatouri
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सगुण और निर्गुण भक्ति में अंतर इस प्रकार है।

Explanation:

भक्ति संतों ने ईश्वर के स्वरूप को महसूस करने के दो तरीकों पर जोर दिया है जिनमें से पहला है सगुण और दूसरा है निर्गुण।

जहाँ सगुण भक्ति संत परमात्मा की प्रतिमा के रूप में पूजा पर जोर देते हैं वहीं निर्गुण भक्ति संत निराकार ईश्वर की पूजा पर जोर देते हैं।

इस प्रकार सगुण भक्ति में परमात्मा का अपना रूप और गुण है जबकि निर्गुण भक्ति में परमात्मा निर्गुण है अर्थात उनकी कोई विशेषता यह गुण नहीं है।

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