Hindi, asked by Anonymous, 1 month ago

सहयोग, अनुशासन ,अभि व्यक्ति ,स्नहे ,शि क्षा, गुरु, सम्मान , चुनौती ,जीवन, उद्देश्


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लघु कथा का नि र्मा ण करें​

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Answered by amarjyotijyoti87
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Answer:

आज हमारे जीवन मे अनुशासन की सख्‍त आवश्‍यकता है अनुशासन जीवन के विकास का अनिवार्य तत्व है, जो अनुशासित नहीं होता, वह दूसरों का हित तो कर नहीं पता, स्वयं का अहित भी टाल नहीं सकता । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन का महत्व है । अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है । समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है ।

Answered by bhagyashreehappy123
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Answer:

लघुकथा समकालीन साहित्य की एक अनिवार्य और स्वाया विधा के रूप में स्थापित हो गई है। नई सदी में यह सामाजिक बदलाव को गति देने में महवपूर्ण भूमिका निभा रही है। विशेष तौर पर मूल्यों के क्षरण के दौर में अनेक लघुकथाकार तीखा शर–सन्धान कर रहे हैं। इस क्षेत्र में सक्रिय कई रचनाकारों ने अपनी सजग क्रियाशीलता और प्रतिबद्धता से लघुकथा की अन्य विधाओं से विलक्षणता को न सिर्फ़ सिद्ध कर दिखाया है, वरन् उससे आगे जाकर वे निरन्तर नए अनुभवों के साथ नई सौन्दर्यदृष्टि और नई पाठकीयता को गढ़ रहे हैं। लघुकथा विशद् जीवनानुभवों की सुगठित,सन, किन्तु तीव्र अभिव्यक्ति है। यह कहानी का सार या संक्षिप्त रूप न होकर बुनावट में स्वायत्त है। यह ब्योरों में जाने के बजाय संश्लेषण से ही अपनी सार्थकता पाती है। एक श्रेष्ठ लघुकथाकार इसके आणविक कलेवर में ‘‘यद्पिण्डे तद्ब्रह्याण्डे’’ के सूत्र को साकार कर सकता है। वह वामन–चरणों से विराट को मापने का दुरूह कार्य अनायास कर जाता है।

वैसे तो नीति या बोधकथा और दृष्टान्त के रूप में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से जारी है, किन्तु इसे साहित्य की विशिष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठा हाल के दौर में ही मिली। नए आयामों को छूते हुए इस विधा ने सदियों की यात्रा दशकों में कर ली है। प्रारम्भिक तौर पर माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बखी, माधवराव सप्रे, प्रेमचन्द, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय जैसे कई प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इस विधा के गठन में अपनी समर्थ भूमिका निभाई। फिर तो कई लोग जुड़ने लगे और यह एक स्वतन्त्र विधा का गौरव प्राप्त करने में कामयाब हुई। शुरुआती दौर में इसकी कोई मुकम्मल संज्ञा तो नहीं थी, कालान्तर में इस संज्ञा को व्यापक स्वीकार्यता मिल गई। किन्तु वे स्थिर न रह सकीं।

बिहार के सृजन उर्वरा भूमि के रत्न, वरिष्ठ कथकार युगलजी (1925) ने लघुकथा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम देर से ही बनाया, किन्तु आज वे लघुकथा के विधागत गठन में योगदान देनेवाले प्रमुख सर्जकों में शुमार किए जाते हैं। उन्होंने अपने रचनाकाल के चार दशक उपन्यास ,पूरी तरह कहानी,नाटक,कविता जैसी विविध विधाओं के सृजन को दिए। फिर 1985–86 के आसपास लघुकथा पर विशेष फोकस किया। तब तक विधा के नाम और आकार से जुड़ी बहस थम चुकी थी। तब से वे अन्य माध्यमों के साथ–साथ लघुकथाओं के सृजन को भी बेहद संजीदगी और निष्ठा से लेते आ रहे हैं। उन्होंने तीन उपन्यास, तीन कहानी–संग्रह, तीन नाटक, दो कविता–संग्रह और दो निबन्ध–संग्रहों के साथ पाँच लघुकथा –संग्रह दिए हैं। वे महज बन्द कमरों में बैठकर रचना करनेवाले लेखक नहीं हैं। उन्होंने जीवन के ऊबड़–खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए जो भी देखा–भोगा है, उसे लघुकथाओं के जरिए साकार कर दिखाया है। लघुकथा के क्षेत्र में उनके द्वारा प्रणीत संचयन–उच्छ्वास,फूलोंवाली दूब,गरम रेत, जब द्रौपदी नंगी नहीं हुई और पड़ाव के आगे –पर्याप्त चर्चित और प्रशंसित रहे हैं।

लघुकथा के क्षेत्र में फामू‍र्लाबद्ध लेखन बड़ी सीमा के रूप में दिखाई दे रहा है, वहीं युगलजी उसे निरन्तर नया रूपाकार देते आ रहे हैं। उनकी लघुकथाओं में इस विधा को हाशिए में कैद होने से बचाने की बेचैनी साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी लघुकथा में प्रतीयमान अर्थ की महत्ता निरन्तर बनी हुई है। भरतीय साहित्यशास्त्र में ध्वनि को काव्यात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने के पीछे ध्वनिवादियों की गहरी दृष्टि रही है। वे जानते थे कि शब्द का वही अर्थ नहीं होता है ,जो सामान्य तौर पर हम देखते–समझते हैं। साहित्य में निहित ध्वनि तत्त्व तो घण्टा अनुरणन रूप है, जिसका बाद तक प्रभाव बना रहता है। अर्थ की इस ध्वन्यात्मकता को युगलजी ने अनायास ही साध लिया है। उनकी अनेक लघुकथाएँ इस बात का साक्ष्य देती हैं।

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