sahitya or samaj ka sambandh spast karo
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कहने का तात्पर्य यह है कि यदि साहित्य समाज में नैतिक सत्य की चिन्ता है, तो यह समाज की दूरगामी वृत्तियों का रक्षक तत्व भी है । तभी तो प्रेमचन्द ने साहित्यकारों को सावधान करते हुए साहित्य के लक्ष्य को बड़ी मार्मिकता से रेखांकित करते हुए कहा था- ”जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो, हमारा सौन्दर्य-प्रेम न जागे, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं ।”
साहित्य में सत्य की साधना है, शिवत्व की कामना है और सौन्दर्य की अभिव्यंजना है । शुद्ध, जीवन्त एवं उत्कृष्ट साहित्य मानव एवं समाज की संवेदना और उसकी सहज वृतियों को युगों-युगों तक जनमानस में संचारित करता रहता है । तभी तो शेक्सपियर हों या कालिदास उनकी कृतियाँ आज भी अपनी रससुधा से लोगों के हृदय को आप्लावित कर रही हैं ।
एक बात और, राजनीतिक दृष्टि से विश्व चाहे कितने ही गुटों में क्यों न बँट गया हो, चाहे उसके मतभेद की खाई कितनी ही गहरी क्यों न हो गई हो, किन्तु साहित्य के प्रांगण में सब एक हैं, क्योंकि दुनिया का मानव एक है तथा उसकी वृत्तियाँ भी सब जगह और सभी कालों में एक समान हैं ।
प्राचीन ग्रीक साहित्य क्यों प्रिय लगता है, जबकि वह ग्रीक समाज की दास-प्रथा, स्त्रियों की दुर्दशा तथा श्रम से घृणा जैसी विकृतियों से पीड़ित था । वह आज भी प्रिय एवं आकर्षक इसलिए लगता है कि इसमें मनुष्यता का एक युग चित्रित हुआ है । इसमें दोराय नहीं कि मनुष्य के सहज स्वभाव के अनुसार साहित्य भी परिवर्तित होता रहता है ।