Hindi, asked by jayalakshmijyz456, 10 hours ago

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Answered by Pico7
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Answer:

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Explanation:

पूरा नाम सखूबाई अन्य नाम सखू कर्म भूमि भारत प्रसिद्धि भगवान विट्ठलनाथ की परम भक्त। नागरिकता भारतीय संबंधित लेख श्रीकृष्ण, रुक्मिणी। चमत्कारिक प्रसंग सखूबाई के सास-श्वसुर तथा उसके पति ने उसे पण्ढरपुर यात्रा पर नहीं भेजा। उसे घर में बाँधकर रखा, किन्तु भगवान विट्ठल स्वयं स्त्रीभेष में आकर सखूबाई के स्थान पर बँध गए और उसे पण्ढरपुर भेज दिया। अन्य जानकारी जब पण्ढरपुर में सखूबाई ने भगवान का भजन-ध्यान आदि करते हुए समाधिस्थ होकर प्राण त्याग दिये, तब देवी रुक्मिणी जी ने उन्हें नवजीवन प्रदान किया। सखूबाई भगवान विट्ठल की परम भक्त थीं। महाराष्ट्र राज्य में हुए भगवान के प्रसिद्ध भक्तों में उनकी गिनती की जाती है। सखूबाई जितनी विनम्र और सुशील थीं, उसके विपरीत उनके सास-श्वसुर तथा पति उतने ही दुष्ट स्वभाव के थे। सखुबाई इन सब परिस्थितियों को भगवान की देन समझकर अपना कार्य करती रहती थीं। परिचय महाराष्‍ट्र में कृष्‍णा नदी के तट पर करहाड़ नामक एक स्‍थान है। वहाँ एक ब्राह्मण रहा करता था। उसके घर में वह ब्राह्मण स्वयं, उसकी स्‍त्री और पुत्र तथा साध्‍वी पुत्रवधू- ये चार प्राणी रहते थे। ब्राह्मण की पुत्रवधू का नाम सखूबाई था। उन्होंने अपना सारा समय भगवान के नाम-स्‍मरण, ध्‍यान, पूजा-पाठ तथा भजन आदि में बिता दिया।[1] सास-श्वसुर का अत्याचार सखूबाई जितनी ही अधिक भगवान की भक्त, सुशीला, विनम्र और सरलहृदया थीं, उसके सास-श्वसुर और पति, तीनों उतने ही दुष्‍ट, कर्कश, अभिमानी, कुटिल ओर कठोर हृदय थे। वे सखू को सताने में कुछ भी उठा नहीं रखते थे। तड़के से लेकर रात को सबके सो जाने तक मशीन की भाँति‍ बिना विश्राम काम करने पर भी सास उसे भरपेट खाने को भी नहीं देती थी। परंतु सखूबाई इसे भी भगवान की दया समझकर अपने कर्तव्‍य के अनुसार अस्‍वस्‍थ होने पर भी काम करती रहतीं। परंतु दुष्‍टा सास इतने पर ही राजी न होती, वह उसे दो-चार लात घूँसे जमाये और उसको तथा उसके माँ-बाप को दस-बीस बार गालियाँ सुनाये बिना संतुष्‍ट नहीं होती थी। परंतु सखू सास के सामने कुछ न बोलतीं, लहू का घूँट पीकर रह जातीं। वह इन दारुण दु:खों को अपने कर्मों का भोग और भगवान का आशीर्वाद समझकर उन्‍हें सुखरूप में परिणत कर सदा प्रसन्‍न रहतीं। पण्‍ढरपुर यात्रा की इच्छा महाराष्‍ट्र में पण्‍ढरपुर वैष्‍णवों का प्रसिद्ध तीर्थ है। वहाँ प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्‍ला एकादशी को बड़ा भारी मेला होता है। लाखों नर-नारी कीर्तन करते हुए भगवान पण्‍ढरीनाथ श्रीविट्ठल[2] के दर्शनार्थ दूर-दूर से आते हैं। अब के भी कुछ यात्री करहाड़ की तरफ़ से होकर पण्‍ढरपुर मेले में जा रहे थे। सखू इस समय कृष्‍णा नदी पर जल भरने गयी थीं। इन सबको जाते देखकर उसके मन में श्रीपण्‍ढरीनाथ के दर्शन करने की प्रबल इच्‍छा हुई। उसने सोचा कि सास-श्वसुर आदि से तो किसी तरह आज्ञा मिल नहीं सकती और पण्‍ढरपुर जाना निश्चित है; अत: क्‍यों न इसी मण्‍डली के साथ चल पड़ूँ। वह उनके साथ हो लीं। उसकी एक पड़ोसिन ने यह सब समाचार उसकी दुष्‍टा सास को जा सुनाया। वह सुनते ही जहरीली नागिन की तरह फुफकार मारकर उठी और अपने लड़के को सिखा-पढ़ाकर सखू को मारते-पीटते घसीट लाने को भेजा। वह नदी तट पर पहुँचा और सखू को मार-पीटकर घर ले आया। अब तीनों की मंत्रणा के अनुसार दो सप्‍ताह तक, जब तक कि पण्‍ढरपुर की यात्रा होती है, सखू को बाँध रखने और कुछ भी खाने-पीने को न देना निश्चित हुआ। उन्‍होंने सखू को रस्‍सी से इतने जोर से खींचकर बाँधा कि उसके सूखे शरीर में गढ़े पड़ गये। भगवान से प्रार्थना बन्‍धन में पड़ी हुई सखू भगवान से कातर स्‍वर से प्रार्थना करने लगी- "हे नाथ ! मेरी यही इच्‍छा थी कि यदि एक बार भी इन नेत्रों से आपके चरणों के दर्शन कर लेती तो सुखपूर्वक प्राण निकलते। मेरे तो जो कुछ हैं सो आप ही हैं और मैं- भली-बुरी जैसी भी हूँ, आपकी ही हूँ। हे नाथ ! क्‍या मेरी इतनी-सी बात भी न सुनोगे, दयामय?" इस प्रकार बड़ी देर तक सखू प्रार्थना करती रही। भक्त के अन्‍तस्‍तल की सच्‍ची पुकार कभी व्‍यर्थ नहीं जाती। वह चाहे कितनी ही धीमी क्‍यों न हो, त्रिभुवन को भेदकर भगवान के कर्ण छिद्रों में प्रवेश कर जाती है और उनके हृदय को उसी क्षण द्रवीभूत कर देती है। स्त्री रूप में भगवान का आगमन सखू की आर्त पुकार से वैकुण्‍ठनाथ का आसन हिल उठा। वे तुरंत एक सुन्‍दर स्‍त्री का रूप धारण कर उसी क्षण सखू के पास जाकर बोले- "बाई ! मैं पण्‍ढरपुर जा रही हूँ, तू वहाँ नहीं चलेगी?" सखू ने कहा- "बाई ! मैं जाना तो चाहती हूँ, पर यहाँ बँध रही हूँ; मुझ पापिनी के भाग्‍य में पण्‍ढरपुर की यात्रा कहाँ है।" यह सुनकर उन स्‍त्रीवेषधारी भगवान ने कहा- "बाई ! मैं तेरी सदा सहचरी हूँ, तू उदास मत हो। तेरे बदले मैं यहाँ बँध जाती हूँ।" यह कहकर भगवान ने तुरंत उसके बन्‍धन खोल दिये और उसे पण्‍ढरपुर पहुँचा‍ दिया। आज सखू का केवल यही बन्‍धन नहीं खुला, उसके सारे बन्‍धन सदा के लिये खुल गये। वह मुक्त हो गयी। सखू का वेश धारण किये नाथ बँधे हैं। सखू के सास-श्वसुर आदि आते हैं और बुरा-भला कहकर चले जाते हैं और भगवान भी सुशीला वधू की तरह सब कुछ सह रहे हैं। इस प्रकार बँधे हुए पूरे पंद्रह दिन हो गये। सास-श्वसुर का दिल तो इतने पर भी नहीं पसीजा; पर सखू के पति के मन में यह विचार आया कि पूरा एक पक्ष बिना कुछ खाये-पिये बीत गया; कहीं यह मर गयी तो हमारी बड़ी फजीहत होगी। अत: वह पश्‍चात्ताप करता हुआ सखूवेषधारी भगवान के पास पहुँचा और सारे बन्‍धन काटकर क्षमा-प्रार्थना करके बड़े प्रेम से स्‍नान-भोजन आदि करने के लिये कहने लगा। भगवान भी ठीक पतिव्रता पत्‍नी की भाँति सिर नीचा किये खड़े रहे। वह सखू के आने के पहले ही अन्‍तर्धान होने में उसकी विपत्ति कीl

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