Sakshi paath ka Mul Bhav spasht kijiye
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं और वे ही समाधान हैं|
किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं|
विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव"|
स्वयं साक्षी बनकर परमात्मा को कर्ता बनाओ| अपना जीवन उसे सौंप दो|
उसे जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ|
सब समस्याएं तिरोहित होने लगेंगी|
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पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप सभी बाहरी उपक्रम हैं, लेकिन 'साक्षी भाव' दुनिया की सबसे सटीक और कारगर विधि है जो पदार्थ, भाव और विचार से व्यक्ति का तादात्म्य समाप्त कर देती है| साक्षी भाव अध्यात्म का राजपथ तो है ही साथ ही यह जीवन के सुख-दुःख में भी काम आता है|
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साक्षीभाव ही आध्यात्म का प्रवेशद्वार है|
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साक्षी भाव की एक और कड़ी है .... गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना| श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे, सामान्य धोती कुर्ता पहनते थे व नौकरी करते थे| एक बार वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक पुरूष त्रेलंग स्वामी से मिलने गए| स्वामी जी अपने सैंकड़ों शिष्यों के साथ बैठे थे| उनको आता देखकर स्वामी जी उठ खड़े हुए, गले लगाया और सम्मान पूर्वक बैठाया| शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के प्रति इतना सम्मान क्यों? स्वामी जी ने बताया कि जिसको पाने के लिए मुझे वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी, रोटी और लंगोटी तक का भी त्याग करना पड़ा, ये महाशय गृहस्थ रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं है|
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साक्षी भाव का अभ्यास अजपा-जप और प्रणव के ध्यान द्वारा करें| ध्यान साधना को जीवन का अंग बनायें|
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साक्षी भाव का मूल है ...... कर्मों में निर्लिप्तता ......
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है| दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है, और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है| अब प्रश्न ये है कि इस से बाहर निकले का उपाय क्या है?
क्यों कि कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे, कर्महीन होना असंभव है|
इस का उत्तर सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है| गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है कि .....
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऐसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बन्ध जाता है|
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर्म करो, फल की इच्छा मत करो| जिसने ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस का दायीत्व स्वयं लेकर उस का फल भोगने को तैयार है| सारे दुःख का कारण अपेक्षा है| साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता|
जब हम कोई कर्म करे तो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे कि .... ये कौन है जो यह कर रहा है| जब हम स्वाद ले, क्रोध या काम में, अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह स्वयं क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर| ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे|
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे। ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.... इसका विचार शुन्यता से गहरा नाता है| इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा अंतहीन है।
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