Hindi, asked by rahuljaan589, 6 months ago

समाज में फैले धर्म आडंबर क्यों है plz answer my question in Hindi only​

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Answered by lakshmanraj568
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Answer:

ज्ञात मानव इतिहास में धर्म का कोई न कोई रूप हमेशा मौजूद रहा है। उसके नकारात्मक पक्षों से उबरने के लिए विकल्प के रूप में अक्सर ‘विज्ञान’ को खड़ा किया जाता है। सामान्यतः यह भरोसा भी किया जाता है कि विज्ञान के विस्तार के साथ ज्ञान के विकार या भ्रांतियां खत्म हो जाएंगी। वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकी की प्रधानता के दौर में संचार की सुविधा अत्यंत तीव्र और व्यापक हो चली है। पर स्थिति निराश करने वाली बनती जा रही है। विज्ञान और धर्म, दोनों सक्रिय हैं और उनके बीच तनातनी नहीं है। दोनों के बीच वह समन्वय भी नहीं आ पा रहा है, जो अपेक्षित था। हां, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का धर्म के द्वारा दुरुपयोग जरूर हो रहा है। हरियाणा के सिरसा में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम के कारनामे और उनके लाखों भक्तों और अनुयायियों द्वारा पंचकूला में दहशतगर्दी का नजारा दिल दहलाने वाला था।

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यह कहानी नई नहीं है। इसके पहले भी कई (तथाकथित!) धर्मगुरुओं के साथ समाज का ऐसा ही अनुभव हुआ है। साधुओं के अखाड़े, गद्दियों और पीठों को लेकर लड़ाई-झगड़े, मुकदमे और व्यभिचार की कहानियां सामने आती रही हैं। हर तरह के भौतिक सुख में लिपटे, विलासी, धर्म की दुकानदारी और व्यापार करने वाले और दुष्कर्म के आरोपी धर्म के ठेकेदार बने ये लोग धर्म के बाह्य आडंबर में आम जनता को बांधने में सफल हो जाते हैं। उनके अनुयायी जिंदगी में दुखी होते हैं या फिर और सुख चाहते हैं। उन्हें इन धर्मगुरुओं में सस्ता और साधारण उपाय दिखाई पड़ता है।

आज धर्म के नाम पर हिंसा और युद्ध का घिनौना विस्तार होता जा रहा है। चूंकि आदमी के मन को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है, अतः उसकी धार्मिक भावनाओं को उभारना मुश्किल नहीं होता। सीधे-सादे आदमी को भी उन्माद की मनःस्थिति में लाकर उससे कुछ भी कराया जा सकता है। आतंक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ावा देने के लिए ऐसे धार्मिक उन्माद को प्रभावशाली युक्ति या तकनीक के रूप में प्रयोग में लाया जा रहा है। शायद विज्ञान स्वयं में पर्याप्त नहीं होता, उसके साथ विवेक भी होना चाहिए।

भ्रम को निर्मूल कर विज्ञान आगे बढ़ गया था। परंतु मन की दुनिया में जहां आशा, भय, चिंता की हलचल मची रहती है, आदमी असुरक्षा से बचने की जुगत में लगा रहता है। भौतिक उन्नति और प्रतिस्पर्धा के जमाने में ईश्वर, आत्मा, पाप, पुण्य, टोने, टोटके, स्नान-ध्यान, कथा, चौकी, जागरण यात्रा आदि की भरमार स्वाभाविक है। जब आकांक्षा और भय सामाजिक रूप से संगठित धर्मों के हिस्से बन जाते हैं, तो पूरा समाज अंधविश्वास के दायरे में जीने लगता है। बढ़ते आडंबरों की दुनिया में आज जितने भी धर्म हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं, जो सभी मनुष्यों का धर्म बन सके। विभिन्न धर्मों में कुछ आवश्यक नैतिक गुण एक से हो सकते हैं, पर वे उसकी धर्मिकता के जीवंत रूप में नहीं आते। निरे धार्मिक कृत्यों और मान्यताओं के बस में रहकर विभिन्न धर्मों के बीच आपस में संवाद नहीं हो सकता।

अतः धर्म और विज्ञान को अस्तित्व के व्यापक स्तर पर उठना होगा। मनुष्य को जीवन और प्रकृति के निकट लाना होगा। आंतरिक आध्यात्मिक अनुभूति, जो शायद शब्द और बिंब से परे होती है, विश्व चैतन्य का आधार हो सकती है। आज आंतरिक शांति और सहज समरसता घट रही है, प्रदूषित विचार फैल रहे हैं और सामाजिक संगठन विकृत होते जा रहे हैं।

Answered by sangeeservi
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Answer:

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारा समाज धार्मिक ठोंग पाखंड और अंधविश्वास की बेड़ियों में लोभी और गुमराह मुल्लाओं , पंडितों ,भगवानो द्वारा जकड़ा हुआ समाज है | अधिकतर तो जाहिल इनका शिकार होते हैं लेकिन मैंने धर्म और आस्था के नाम पे बड़े बड़े पढ़े लिखों को इसका शिकार होते देखा है |चमत्कारी बाबाओं और भगवानो द्वारा महिलाओं के शोषण की बातें हमेशा से प्रकाश में आती रही हैं और धन तो इनके पास दान का इतना आता है कि जिसे यह खुद भी नहीं गिन सकते | इसके दोषी केवल यह बाबा ,मुल्ला या भगवान् नहीं बल्कि हमारा यह भटका हुआ समाज है जो किरदार की जगह चमत्कारों से भगवान् को पहचानने की गलती किया करता है|

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