Sociology, asked by dbrds, 1 year ago

Samaj priwrtan se aap kya smjhte h

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Answered by Akhilrajp
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समाज

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समाज एक से अधिक लोगों के समुदाय को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते है। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण, सामाजिक सुरक्षाऔर निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती है। समाज लोगों का ऐसा समूह होता है जो अपने अंदर के लोगों के मुकाबले अन्य समूहों से काफी कम मेलजोल रखता है। किसी समाज के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति एक दूसरे के प्रति परस्पर स्नेह तथा सहृदयता का भाव रखते हैं। दुनिया के सभी समाज अपनी एक अलग पहचान बनाते हुए अलग-अलग रस्मों-रिवाज़ों का पालन करते हैं।

परिचयसंपादित करें

समाज मानवीय अंत:क्रियाओं के प्रक्रम की एक प्रणाली है। मानवीय क्रियाएँ चेतन और अचेतन दोनों स्थितियों में साभिप्राय होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास की अभिव्यक्ति है। उसकी कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएँ होती हैं - काम, क्षुधा, सुरक्षा आदि। इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव व्याप्त हो जाता है। वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं की सम्यक् संतुष्टि के लिए अपने दीर्घ विकासक्रम में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था को विकसित किया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों को विकसित करती है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।

समाज में विभिन्न कर्ताओं का समावेश होता है, जिनमें अंत:क्रिया होती है। इस अंत:क्रिया का भौतिक और पर्यावरणात्मक आधार होता है। प्रत्येक कर्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। सार्वभौमिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। तादात्म्यजनित आवश्यकताएँ संरचनात्मक तत्वों के सहअस्तित्व के क्षेत्र का नियमन करती है। क्रिया के उन्मेष की प्रणाली तथा स्थितिजन्य तत्व, जिनकी ओर क्रिया उन्मुख है, समाज की संरचना का निर्धारण करते हैं। संयोजक तत्व अंत:क्रिया की प्रक्रिया को संतुलित करते है तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उपस्थित करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद, दंड और पुरस्कर, योग्यता तथा गुणों से संबंधित सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। इन अवधाराणाओं की विसंगति की स्थिति में व्यक्ति समाज की मान्यताओं और विधाओं के अनुसार अपना व्यवस्थापन नहीं कर पाता और उसका सामाजिक व्यवहार विफल हो जाता है, ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उसके लक्ष्य को सिद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि उसे समाज के अन्य सदस्यों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता, वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है।

चूँकि समाज व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों की एक व्यवस्था है इसलिए इसका कोई मूर्त स्वरूप नहीं होता; इसकी अवधारणा अनुभूतिमूलक है। पर इसके सदस्यों में एक दूसरे की सत्ता और अस्तित्व की प्रतीति होती है। ज्ञान और प्रतीति के अभाव में सामाजिक संबंधों का विकास संभव नहीं है। पारस्परिक सहयोग एवं संबंध का आधार समान स्वार्थ होता है। समान स्वार्थ की सिद्धि समान आचरण द्वारा संभव होती है। इस प्रकार का सामूहिक आचरण समाज द्वारा निर्धारित और निर्देशित होता है। वर्तमान सामाजिक मान्यताओं की समान लक्ष्यों से संगति के संबंध में सहमति अनिवार्य होती है। यह सहमति पारस्परिक विमर्श तथा सामाजिक प्रतीकों के आत्मीकरण पर आधारित होती है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को यह विश्वास रहता है कि वह जिन सामाजिक विधाओं को उचित मानता और उनका पालन करता है, उनका पालन दूसरे भी करते है। इस प्रकार की सहमति, विश्वास एवं तदनुरूप आचरण सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखते है। व्यक्तियों द्वारा सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु स्थापित विभिन्न संस्थाएँ इस प्रकार कार्य करती है, जिससे एक समवेत इकाई के रूप में समाज का संगठन अप्रभावित रहता है। असहमति की स्थिति अंतर्वैयक्तिक एवं अंत:संस्थात्मक संघर्षों को जन्म देती है जो समाज के विघटन के कारण बनते है। यह असहमति उस स्थिति में पैदा होती है जब व्यक्ति सामूहिकता के साथ आत्मीकरण में असफल रहता है। आत्मीकरण और नियमों को स्वीकार करने में विफलता कुलगति अधिकारों एवं सीमित सदस्यों के प्रभुत्व के प्रति मूलभूत अभिवृत्तियों से संबद्ध की जा सकती है। इसके अतिरिक्त ध्येय निश्चित हो जाने के पश्चात् अवसर इस विफलता का कारण बनता है।

सामाजिक संगठन का स्वरूप कभी शाश्वत नहीं बना रहता। समाज व्यक्तियों का समुच्चय है और विभिन्न लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न समूहों में विभक्त है। अत: मानव मन और समूह मन की गतिशीलता उसे निरंतर प्रभावित करती रहती है। परिणामस्वरूप समाज परिवर्तनशील होता है। उसकी यह गतिशीलता ही उसके विकास का मूल है। सामाजिक विकास परिवर्तन की एक चिरंतन प्रक्रिया है जो सदस्यों की आकांक्षाओं और पुनर्निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में उन्मुख रहती है। संक्रमण की निरंतरता में सदस्यों का उपक्रम, उनकी सहमति और नूतनता से अनुकूलन की प्रवृत्ति क्रियाशील रहती है।


dbrds: Thanks
Answered by TheKnowledge
1
HEY MATE !!!



THE CHANGING IN SOCIETY EITHER SOCIALLY ECONOMICALLY OR POLITICAL E IS KNOWN AS SOCIAL CHANGES.




सामाजिक परिवर्तन से हम यही समझते हैं कि अर्थव्यवस्था राजनीति और सामाजिक परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं.!




social changes also cause changes in culture.






hope it helps!!!!



thanks




dbrds: Thanks
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