Samajik dost chuachut se aap kya samajhte ho
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पुराने जमाने में मार्ग से गुजरने का पहला अधिकार ऊंची जाति के लोगों को होता था। नीची जाति के लोग तभी निकल सकते थे जब ऊंची जाति के लोग पहले वहां से गुजर चुके हों। यानि कि यदि दो लोगों को रास्ते से गुजरना हो तो रास्ते से गुजरने का पहला अधिकार ऊंची जाति के व्यक्ति का था उसके बाद ही नीची जाति का व्यक्ति वहां से निकल सकता था। आज के जमाने में शहरों की सड़कों पर ट्रैफिक लाइट्स होती हैं। ट्रैफिक लाइट्स कास्ट ब्लाइंड होती हैं यानि कि वो जात-पात को नहीं देखतीं हैं। आपकी जाति ऊंची हो या नीची हो, रेड लाइट पर सबको रूकना होता है और ग्रीन लाइट होने पर सबको निकलने मौका मिलता है। हां, उसमें कुछ अपवाद अवश्य हैं जैसे कि नीली बत्ती वाले एम्बुलेंस के लिए। यदि किसी मरीज की तबियत ज्यादा खराब है और उसे तत्काल उपचार के लिए अस्पताल पहुंचने की आवश्यकता है तो एम्बुलेंस को जाने का रास्ता दिया जाता है, किंतु एम्बुलेंस की कोई जाति नहीं होती।
तो न्याय किसे कहते हैं और सामाजिक न्याय किसे कहते हैं? सबसे पहले, न्याय किसे कहते हैं इस पर बात करते हैं। न्याय एंड (परिणाम) व मीन्स (माध्यम) पर निर्भर करता है। एंड यानि परिणाम के आधार पर किसी व्यवस्था को न्यायपूर्ण अथवा अन्यायपूर्ण बताना बहुत कठिन है। लेकिन व्यवस्था के तौर तरीकों अथवा माध्यम के आधार पर आप आसानी से बता सकते हैं कि व्यवस्था न्यायपूर्ण है अथवा अन्यायपूर्ण। इसकी व्याख्या करने के लिए क्रिकेट मैच का उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए क्रिकेट मैच बांगलादेश और न्यूजीलैंड के बीच खेला जा रहा है। और यदि न्यूजीलैंड की टीम मैच जीत जाती हो तो क्या यह अन्यायपूर्ण होगा? क्या यह तर्क देना उचित होगा कि चूंकि बांगलादेश थर्डवर्ल्ड कंट्री है या उनके पास स्टेडियम नहीं हैं या फिर उनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं जिससे उन्हें अभ्यास का बढ़िया मौका नहीं मिला। या फिर बचपन में उन्हें पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिला इसलिए वे उस टीम के खिलाफ मैच हार गए जो उनसे ज्यादा सक्षम और संसाधनपूर्ण हैं इसलिए यह अन्याय हुआ। नहीं, आपने ऐसा कभी नहीं सुना होगा! क्योंकि क्रिकेट मैच के दौरान अप्लाई होने वाले रूल्स ऑफ गेम दोनों टीमों के लिए एक से हैं। दोनों टीमों को खेल के दौरान गेंदबाजी के लिए समान संख्या के ओवर, समान संख्या में खिलाड़ी, एक जैसा बॉल, एक जैसे बैट, समान स्टेडियम आदि उपलब्ध कराया जाता है।
लेकिन यदि नियमों में इस प्रकार के बदलाव किए जाएं जैसे यदि क्रिकेट खेल रही टीम कोई देश थर्ड वर्ल्ड कंट्री की है तो उसके लिए नियमों में कुछ फ्लैक्सिबिलिटी/छूट दी जा सकती है तो क्या यह तर्क संगत होगा? इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री एफ.ए.हायक के मुताबिक भी रूल ऑफ जस्टिस के लिए आप प्रक्रिया (प्रोसीज़र) की विवेचना कर सकते हैं और उस आधार पर देख सकते हैं कि व्यवस्था न्यायपूर्ण है या नहीं लेकिन परिणाम के आधार पर ऐसा कहना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि रूल्स ऑफ गेम सबके लिए समान होना चाहिए, क्योंकि परिणाम के बाबत अलग अलग लोग अलग अलग राय व्यक्त करेंगे कि परिणाम न्यायपूर्ण है या नहीं।
दूसरी बात यदि व्यवस्था की न्यायसंगतता को परिणाम के आधार पर तय करने की कोशिश की भी जाए कि तो फिर प्रश्न यह होगा कि इसे तय करे कौन? इसके अलावा परिणाम तक पहुंचने का माध्यम और प्रक्रिया क्या होगी इसे कौन तय करेगा? यदि मान लिया जाए कि चुने हुए प्रतिनिधि उसे तय करेंगे और वो बताएंगे कि परिणाम क्या होगा और प्रक्रिया क्या होगी तो आप देखिए कि आरक्षण वाली व्यवस्था इसका बेहतर उदाहरण साबित हो सकता है। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि आरक्षण और उसकी प्रक्रिया को तय करने के लिए मुक्त हैं, लेकिन धरातल पर क्या होता है? सभी राजनैतिक दल इस प्रक्रिया और व्यवस्था का अधिकाधिक लाभ उठाना चाहते हैं क्योंकि अगली बार उनका चुना जाना उसी पर निर्भर करेगा। इस प्रकार, आरक्षण की चाह रखने वाले कुछ समूह हिंसा अथवा संख्या बल के जोर पर राजनैतिक दलों और प्रतिनिधियों पर दबाव बनाते हैं और राजनैतिक दल व जन प्रतिनिधि अगली चुनाव में जीत के लिए उनकी बात मान लेते हैं। इस प्रकार समस्त प्रक्रिया राजनैतिक फुटबॉल में परिवर्तित हो जाती है। वोटबैंक के लिए राजनैतिक दल इस खेल को ज्यादा से ज्यादा समय तक खींचना चाहते हैं
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HEY , HERE IS YOUR ANSWER..
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पहले वहां से गुजर चुके हों। यानि कि यदि दो लोगों को रास्ते से गुजरना हो तो रास्ते से गुजरने का पहला अधिकार ऊंची जाति के व्यक्ति का था उसके बाद ही नीची जाति का व्यक्ति वहां से निकल सकता था। आज के जमाने में शहरों की सड़कों पर ट्रैफिक लाइट्स होती हैं। ट्रैफिक लाइट्स कास्ट ब्लाइंड होती हैं यानि कि वो जात-पात को नहीं देखतीं हैं। आपकी जाति ऊंची हो या नीची हो, रेड लाइट पर सबको रूकना होता है और ग्रीन लाइट होने पर सबको निकलने मौका मिलता है। हां, उसमें कुछ अपवाद अवश्य हैं जैसे कि नीली बत्ती वाले एम्बुलेंस के लिए। यदि किसी मरीज की तबियत ज्यादा खराब है और उसे तत्काल उपचार के लिए अस्पताल पहुंचने की आवश्यकता है तो एम्बुलेंस को जाने का रास्ता दिया जाता है, किंतु एम्बुलेंस की कोई जाति नहीं होती।
तो न्याय किसे कहते हैं और सामाजिक न्याय किसे कहते हैं? सबसे पहले, न्याय किसे कहते हैं इस पर बात करते हैं। न्याय एंड (परिणाम) व मीन्स (माध्यम) पर निर्भर करता है। एंड यानि परिणाम के आधार पर किसी व्यवस्था को न्यायपूर्ण अथवा अन्यायपूर्ण बताना बहुत कठिन है। लेकिन व्यवस्था के तौर तरीकों अथवा माध्यम के आधार पर आप आसानी से बता सकते हैं कि व्यवस्था न्यायपूर्ण है अथवा अन्यायपूर्ण। इसकी व्याख्या करने के लिए क्रिकेट मैच का उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए क्रिकेट मैच बांगलादेश और न्यूजीलैंड के बीच खेला जा रहा है। और यदि न्यूजीलैंड की टीम मैच जीत जाती हो तो क्या यह अन्यायपूर्ण होगा? क्या यह तर्क देना उचित होगा कि चूंकि बांगलादेश थर्डवर्ल्ड कंट्री है या उनके पास स्टेडियम नहीं हैं या फिर उनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं जिससे उन्हें अभ्यास का बढ़िया मौका नहीं मिला। या फिर बचपन में उन्हें पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिला इसलिए वे उस टीम के खिलाफ मैच हार गए जो उनसे ज्यादा सक्षम और संसाधनपूर्ण हैं इसलिए यह अन्याय हुआ। नहीं, आपने ऐसा कभी नहीं सुना होगा! क्योंकि क्रिकेट मैच के दौरान अप्लाई होने वाले रूल्स ऑफ गेम दोनों टीमों के लिए एक से हैं। दोनों टीमों को खेल के दौरान गेंदबाजी के लिए समान संख्या के ओवर, समान संख्या में खिलाड़ी, एक जैसा बॉल, एक जैसे बैट, समान स्टेडियम आदि उपलब्ध कराया जाता है।
लेकिन यदि नियमों में इस प्रकार के बदलाव किए जाएं जैसे यदि क्रिकेट खेल रही टीम कोई देश थर्ड वर्ल्ड कंट्री की है तो उसके लिए नियमों में कुछ फ्लैक्सिबिलिटी/छूट दी जा सकती है तो क्या यह तर्क संगत होगा? इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री एफ.ए.हायक के मुताबिक भी रूल ऑफ जस्टिस के लिए आप प्रक्रिया (प्रोसीज़र) की विवेचना कर सकते हैं और उस आधार पर देख सकते हैं कि व्यवस्था न्यायपूर्ण है या नहीं लेकिन परिणाम के आधार पर ऐसा कहना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि रूल्स ऑफ गेम सबके लिए समान होना चाहिए, क्योंकि परिणाम के बाबत अलग अलग लोग अलग अलग राय व्यक्त करेंगे कि परिणाम न्यायपूर्ण है या नहीं।
दूसरी बात यदि व्यवस्था की न्यायसंगतता को परिणाम के आधार पर तय करने की कोशिश की भी जाए कि तो फिर प्रश्न यह होगा कि इसे तय करे कौन? इसके अलावा परिणाम तक पहुंचने का माध्यम और प्रक्रिया क्या होगी इसे कौन तय करेगा? यदि मान लिया जाए कि चुने हुए प्रतिनिधि उसे तय करेंगे और वो बताएंगे कि परिणाम क्या होगा और प्रक्रिया क्या होगी तो आप देखिए कि आरक्षण वाली व्यवस्था इसका बेहतर उदाहरण साबित हो सकता है। हमारे चुने हुए प्रतिनिधि आरक्षण और उसकी प्रक्रिया को तय करने के लिए मुक्त हैं, लेकिन धरातल पर क्या होता है? सभी राजनैतिक दल इस प्रक्रिया और व्यवस्था का अधिकाधिक लाभ उठाना चाहते हैं क्योंकि अगली बार उनका चुना जाना उसी पर निर्भर करेगा। इस प्रकार, आरक्षण की चाह रखने वाले कुछ समूह हिंसा अथवा संख्या बल के जोर पर राजनैतिक दलों और प्रतिनिधियों पर दबाव बनाते हैं और राजनैतिक दल व जन प्रतिनिधि अगली चुनाव में जीत के लिए उनकी बात मान लेते हैं। इस प्रकार समस्त प्रक्रिया राजनैतिक फुटबॉल में परिवर्तित हो जाती है। वोटबैंक के लिए राजनैतिक दल इस खेल को ज्यादा से ज्यादा समय तक खींचना चाहते हैं