Samajik sanghathan ki visheshtao ka varnan kijiye
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सामाजिक संगठन की अवधारणा
संगठन संरचना की इकाइयों के बीच प्रकार्यात्मक संबध्दता का सूचक है। सामान्य अर्थों मे किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मिल-जुलकर काम करना संगठन है। हम अपने चारों ओर संगठन की गतिविधियों को देखकर यह भलीभांति समझ सकते है कि संगठन कैसे तैयार होता है अथवा संगठन की प्रक्रिया किस तरह कार्य करती है। कतिपय उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है जैसे मधुमक्खी का संगठन। इस संगठन को ध्यान से देखिये तो स्पष्ट होता है कि इसमे एक रानी मक्खी होती है और अन्य मक्खियाँ अपना-अपना कार्य करती है। यदि हम खेल के मैदान मे देखे तो एक क्रिकेट टीम मे गेंदबाज, बल्लेबाज, मैदान मे दौड़कर गेंद उठाने वाले खिलाड़ी, विकेटकीपर, यह सब मिलकर अगल-अलग कार्य कर रहे है। लेकिन सबका लक्ष्य समान होता है। इसी तरह किसी कार्यालय अथवा संस्थान के प्रबंधन को देखें तो यह समझ सकेंगे कि कार्यालय मे किस तरह अलग-अलग स्तर मे बंटे कर्मचारी विभिन्न कार्यों को संपादित करके संस्थान के लक्ष्य को पूरा कर रहे है।
समाजशास्त्र में सामाजिक संगठन की बात सर्वप्रथम
ऑगस्ट काम्टे ने की थी। उन्होंने समाज में संगठन का आधार एक मत को माना। आज के इस लेख में हम सामाजिक संगठन के अर्थ और परिभाषा के बारें चर्चा करेंगे।
इमाईल दुर्खीम ने नैतिकता और मूल्य मतैक्यता को सामाजिक संगठन का आधार माना है। संगठन संरचना की इकाइयों के बीच प्रकार्यात्मक संबध्दता का सूचत है। सामान्य अर्थों मे किसी उद्देश्य की प्रप्ति के लिय मिल-जुलकर काम करने को हम संगठन कहते हैं।
सामाजिक संगठन का अर्थ
सामाजिक संगठन का अर्थ (samajik sangathan ka arth)
समाज का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयों में पाये जाने वाले प्रकार्यात्मक सम्बन्ध के आधार पर होता है। समाज में इन इकाइयों की अपनी एक निश्चित स्थिति होती है। इनकी स्थिति के अनुसार ही कार्यों को निर्धारित किया जाता है। जब ये इकाइयां अपने निर्धारित कार्यों के अनुसार क्रियाशील रहती हैं तो समाज में संगठन दिखायी देता है और इसी को सामाजिक संगठन कहा जाता है।
सामाजिक संगठन व्यक्तियों का ऐसा संग्रह है जिनके सम्मिलित उद्देश्य होते है। सदस्यों के बीच कार्य का बँटवारा होता है, संगठन के कुछ निश्चित नियम होते हैं जिनके आधार पर व्यक्ति पर व्यक्ति अपनी भूमिका का निर्वाह करते है।समाज का निर्माण करने वाली अनेक इकाइयां होती हैं। उनके निश्चित पद तथा कार्य होते हैं। ये इकाइयां अपने निश्चित पदों के अनुसार कार्य करती है। यदि ये इकाइयां अपने निश्चित पदों के अनुसार कार्य करती रहती है तो समाज मे व्यवस्था बनी रहती है।
सामाजिक संरचना का अभिप्राय समाज की इकाइयों की क्रमबद्धता से है। जबकि सामाजिक संगठन इकाइयों में प्रकार्यात्मक संतुलन की स्थिति का घोतक हैं।
जे.पी.सिंह के शब्दों में, सामाजिक संगठन एक ऐसी या स्थित है जिसमें किसी समाज से विभिन्न अंग अर्थात् संस्थाएं समूह तथा समितियां अपने स्वीकृति और निर्धारित उद्देश्यों के अनुसार कार्य करती हैं। सामाजिक संगठन की प्रक्रिया मे समाज की इकाइयां निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त करने के प्रति उन्मुख होती हैं।
सामाजिक संगठन को समझने के लिए अब हम विभिन्न विद्वानों द्धारा दी गई सामाजिक संगठन की परिभाषाओं को जानेंगे।
सामाजिक संगठन की परिभाषा (samajik sangathan ki paribhasha)
ऑगबर्न तथा निमकाॅफ के अनुसार परिभाषा; "एक संगठन विभिन्न कार्यों को करने वाले विभिन्न अंगों की एक सक्रिय सम्बध्दता है।
इलियट और मैरिल के अनुसार " सामाजिक संगठन वह दशा या स्थित है, जिसमें एक समाज मे विभिन्न संस्थाएं अपने मान्य तथा पूर्व निश्चित उद्देश्यों के अनुसार कार्य करती है।
चार्ल्स कूले के शब्दों में "सामाजिक अंत:क्रिया के आवश्यक तत्वों के रूप मे सहभागी क्रियाओं तथा उनके बोध को सामाजिक संगठन कहते हैं।
रेमंड फर्थ के अनुसार "संगठित समाज अथवा समुदाय वह हैं जिसमें लोगों का ऐसा संग्रह है जिनकी गतिविधियां समान है और जो विभिन्न संबंधों मे इस प्रकार बंधे है कि एक व्यक्ति अपना लक्ष्य तभी प्राप्त कर सकता है जब सब मिलकर काम करें।
रेडक्लफ ब्राउन के अनुसार " दो या दो से अधिक व्यक्तियों की क्रिया की वह व्यवस्था सामाजिक संगठन कहलाती है जिसमे सामूहिक क्रियाएँ होती हैं।
आर. एच. लोवी के शब्दों में "समाज मे व्यक्तियों और गतिविधियों का सुसंगत संग्रह ही सामाजिक संगठन है।
आर. एच. लोवी के अनुसार परिभाषा; "समाज में व्यक्तियों और गतिविधियों का सुसंगत संग्रह ही सामाजिक संगठन है।
जोंस के अनुसार; " सामाजिक संगठन वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न अंग परस्पर और संपूर्ण समाज में एक अर्थ पूर्ण तरीके से जुड़े होते है।
सामाजिक संगठन की विशेषताएं
1. सामाजिक संगठन एक दशा भी है और एक प्रक्रिया भी।
2. समाज की निर्माणक इकाइयां मे प्रकार्यात्मक संबध्दता एवं संतुलन होने से संगठन कि स्थिति निर्मित होती है।
3. सामाजिक संगठन का निश्चित उद्देश्य होता हैं जिसे प्राप्त करने के लिए इकाइयों के बीच परस्पर सहयोग और एकमत होना आवश्यक हैं।
4. सामाजिक व्यवस्था का संतुलित रूप सामाजिक संगठन कहलाता है।
5. सामाजिक संगठन का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयों मे प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है। इसी सम्बन्ध के फलस्वरूप, इन सभी इकाइयों मे एकता बनी रहती है।
6. सामाजिक संगठन एक परिवर्तनशील धारणा है।
7. सामाजिक संगठन मे अनुकूलन का गुण पाया जाता है।
8. सामाजिक संगठन का सांस्कृतिक व्यवस्था से सम्बंध रहता है।