Hindi, asked by glowbikaJh, 1 year ago

समकालीन समाज में शिक्षा की क्या भूमिका है चर्चा करें samkaleen samaj mein Shiksha ki kya Bhumika Hai Charcha kare

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Answered by ashishboehring
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1) पवित्रता तथा जीवन की सद्भावना – प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य था | शिक्षा आरम्भ होने से पूर्व प्रत्येक बालक के उपनयन संस्कार की पूर्ति करना शिक्षा प्राप्त करते समय अनके प्रकार के व्रत धारण करना, प्रात: तथा सायंकाल ईश्वर की महिमा के गुणगान करना तथा गुरु के कुल में रहते हुए धार्मिक त्योहारों का मानना आदि सभी बातें बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक भावनाओं को विकसित करते उसे आध्यात्मिक दृष्टि से बलवान बनाती है | इस प्रकार साहित्यिक तथा व्यवसायिक सभी प्रकार की शिक्षा का प्रत्यक्ष उद्देश्य बालक को समाज का एक पवित्र तथा लाभप्रद सदस्य बनाना था |

(2) चरित्र निर्माण – भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना | उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है | मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो | अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था | इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे | कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था |

(3) व्यक्तित्व का विकास- बालक के व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण विकसित करना प्राचीन शिक्षा का तीसर उद्देश्य था | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बालक को आत्म-सम्मान की भावना को विकसित करना परम आवश्यक समझा जाता था | अत: प्रत्येक बालक में इस माहान गुण को विकसित करने के लिए आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता, आत्म-नियंत्रण तथा विवेक एवं निर्णय आदि अनके गुणों एवं शक्तियों को पूर्णत: विकसित करने का अथक प्रयास किया जाता था |

(4) नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास- भारत की प्राचीन शिक्षा का चौथा उद्देश्य था – नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना | इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस बात पर बल दिया जाता था कि मनुष्य समाजोपयोगी बने, स्वार्थी नहीं | अत: बालक को माता-पिता, पुत्र तथा पत्नी के अतिरिक्त देश अथवा समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन करना सिखाया जाता था | कहने का तात्पर्य यह है कि तत्कालीन शिक्षा ऐसे नागरिकों का निर्माण करती थी जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज की उन्नति में भी यथाशक्ति योगदान दें सकें |


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