Hindi, asked by shivancoc2097, 3 months ago

समनार्थकपदं योजयत- अविरतम् *



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Answered by shilamore12345
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तत्वार्थ सूत्र अध्याय ९ संवर एवं निर्जरा तत्व(विरचित आचार्यश्री उमास्वामीजी ) राकेश जैन

तत्वार्थ सूत्र अध्याय ९ संवर एवं निर्जरा तत्व राकेश जैन

(विरचित आचार्यश्री उमास्वामीजी )

जैजिनेन्द्र देव की!

पञ्च परमेष्ठी भगवंतों की जय !विश्वधर्म "शाश्वत जैन धर्म"की जय !...

संत श्रोमणि आचार्यश्री विद्यासागर महाराज की जय!

'मोक्षमार्गस्य नेतराम,भेतारं कर्मभूभृतां!ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां,वन्दे तद्गुणलब्द्धये'

उमास्वामीआचार्यश्री नवम अध्याय में ४७ सूत्रों के माध्यम से पांचवे;"संवर"और छटे"निर्जरा " तत्वों को उपदेशित किया है!सूत्र १ में,संवरतत्व ,सूत्र २ में,संवर के उपाय,सूत्र-३ में निर्जरा तत्व,सूत्र ४ में -गुप्ती के भेद,सूत्र ५ में-समितियों के भेद,सूत्र ६ में -दसधर्मो के भेद,सूत्र ७ में-अनुप्रेक्षाओ के भेद,सूत्र ८-१७ तक परिषहजय और उनके भेद,सूत्र १८ में चारित्र के भेद,१९-२८ तक तप के भेद,२९-४४ तक ध्यान के भेद,४५ सूत्र में सम्यग्दृष्टि से जिनेन्द्र भगवान् के कर्मों की निर्जरा ,सूत्र ४६ में मुनियों के भेद,सूत्र ४७ में मुनि के संयम लब्धि के स्थानों का उल्लेख किया है!अपने कर्मों का संवर और निर्जरा आचर्यश्री के उपदेशों का पालन कर कल्याण के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए !

संवर का लक्षण :-

आस्रव: निरोध: संवर: !!१!!

संधि विच्छेद:-आस्रव:+निरोध:+संवर:

शब्दार्थ-आस्रव:-आस्रव का ,निरोध:-रुकना ,संवर:-संवर है

अर्थ-आस्रव का निरोध संवर है!कर्मो का आत्मा में आना आस्रव और उन कर्मों के आने के कारणों को दूर कर रुकना संवर है!

विशेष:

१-आस्रव के दो भेद;\

१-द्रव्यास्राव:कार्माणवर्गणाओ/पुद्गल परमाणुओं का आत्मा की ऒर आना द्रव्यास्राव है और

२-भावास्रव-जिन परिणामों के कारण द्रव्यस्रव होता है वह भावास्रव है!\

संवर के भी दो भेद ,१-द्रव्यसंवर-कार्माण वर्गणाओ का आत्मा की ऒर आने से रुकना द्रव्यसंवर

और

२--भावसंवर-आत्मा के जिन परिणामों के कारण द्रव्यसंवर होता है;भावसंवर है!

२-मिथ्यादर्शन से प्रथमगुणस्थान तक,बारहअविरति के कारण चौथे गुणस्थान तक,त्रस अविरति को छोड़कर,शेष ११ अविरति के कारण पाचवे गुणस्थान तक,प्रमाद के कारण छठे गुणस्थान तक,कषाय के कारण दसवें गुणस्थान तक,योग के कारण तेरहवे गुणस्थान तक आस्रव होता है !मिथ्यात्व के कारण पहले गुणस्थान तक आस्रव होता है और उसके बाद के शेष गुणस्थानों में मिथ्यात्व के अभाव में तत संबंधी मिथ्यात्व के कारण पड़ने वाली सोलह प्रकृतियों;मिथ्यात्व,नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एक सेचतुरेंद्रिय-४जाति,हुँडकसंस्थान,असंप्राप्तासृपाटिकासहनन,नरकगत्यानुपूर्वी, आतप,स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक, और साधारण शरीर का संवर हो जाता है!

३-असंयम के तीन भेद-अनंतानुबंधी,अप्रत्यख्यानवरण,प्रत्याख्यावरण के उदय के निमित्त जिन कर्मों का आस्रव होता है,उनके अभाव में,उन कर्मों का संवर है!जैसे अनंतानुबंधी कषायोदय में असंयम की मुख्यता से,आस्रव को प्राप्त होने वाली निंद्रानिंद्रा,प्रचलाप्रचला,स्त्यानगृद्धि,अन्नतानुबन्धी (क्रोध,मान, माया,लोभ),स्त्रीवेद,तिर्यंचायु,तिर्यंचगति,चारमध्य के सहनन(वज्रनाराच,नाराच, अर्द्धनाराच और कीलित),चारसंस्थान(नयोगोध्रपरिमंडल,स्वाति,कुब्जक,वाम),तिर्यंचगत्यानुपूर्वी,उद्योत, अप्रशस्त विहायोगगति,दुर्भाग,दू:स्वर,अनादेय और नीच गोत्र , ये २५ प्रकृतियाँ एकेन्द्रिय से सासादान सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव के बंधती है,अत:अनंतानुबंधी के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है !

४-अप्रत्याख्यान कषायोदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली अप्रत्याख्यान (क्रोध,मान,माया,लोभ),मनुष्यायु,मनुष्यगति,मनुष्यगत्यानुपूर्वी,औदारिकशरीर,औदारिकअंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसहनन,इन दस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव बंध करते है!अत:अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है!विशेष बात है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुकर्म का बंध नहीं होता !

५-प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में होने वाले असंयम की मुख्यता से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रत्या ख्यावरण(क्रोध,मान,माया,लोभ),इन चार प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से पंचम गुणस्थान तक के जीव बंध करते है !अत:प्रत्यख्यानावरण के कषायोदय से होने वाले असंयम के अभाव में इनका संवर हो जाता है!प्रमाद के निमित्त से होने वाले कर्मो के आस्रव का संवर,उस प्रमाद के अभाव में छठे गुणस्था के आगे हो जाता है !

६-ये असातावेदनीय,अरति,शोक,अस्थिर,अशुभ और अयशकीर्ति ,छ प्रकृतियाँ है!देवायु के बंध का आरम्भ प्रमाद और उसके नजदीकी अप्रमाद हेतु भी होता है !अत:इसका अभाव होने पर उसका संवर जानना चाहिए!जिस कर्म का आस्रव मात्र कषाय के निमित्त से होता है,प्रमादादि के निमित्त से नहीं,उसका कषाय के अभाव में संवर ही है!प्रमादादि के आभाव में होने वाली कषाय तीव्र,मध्यम एवं जघन्य,तीन गुणस्थानों में अवस्थित है!उसमे अपूर्वकरण(८वे )गुणस्थान के प्रारम्भिक असंख्येय भाग में निद्रा और प्रचला प्रकृतियाँबंध को प्राप्त होती है!इसके आगे के संख्येय भाग में ३० प्रकृतियाँ-देव गति,पंचेन्द्रियजाति,(वैक्रियिक,आहारक,तेजस,कार्माण)शरीर,(वैक्रयिक,आहारक)अंगोपाग.समचतुर संस्थान(वर्ण,गंध, रस)शरीर,देवगत्यानुपूर्वी,अगुरुलघु,उपघात,परघात,उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोग गति, त्रसबादर,पर्याप्त, प्रत्येक शरीर,स्थिर,शुभ,सुभग,सुस्वर,आदेय,निर्माण और तीर्थंकर बंध को प्राप्त होती है तथा इसी गुणस्थान में हास्य,रति,भय,जुगुप्सा चार प्रकृतियाँ बंध को प्राप्त होती है!ये तीव्र कषाय से आस्रव को प्राप्त होने वाली प्रकृतियाँ है इसलिए तीव्र कषाय का उत्तरोत्तर अभाव होने के कारण विवेक्षित भाग के आगे इनका संवर हो जाता है!

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