समरथ को नहि दोष गुसाई par anuched
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'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' एक द्रष्टि
श्री तुलसीदास जी ने उनके मन में प्रतिष्ठित श्री हरि राम के चरित्र को आधार बनाकर तत्कालीन संकटग्रस्त हिन्दू समाज की रक्षा हेतु उसके पथ-प्रर्दशक बनकर उच्च आदर्शों वाले समाज के निर्माण के लिए प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ 'श्री रामचरित्र मानस' की रचना की .
हिन्दू समाज के पथ-प्रदर्शक कवि तुलसीदास जी ने रामचरित्र मानस के बाल काण्ड में निम्न पंक्तियों का उल्लेख किया है..
'समरथ को नहीं दोष गुसाईं ,रवि पावक सुरसरि की नाई'
उक्त पंक्तियों में 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' का वास्तविक अर्थ न जानते हुए अथवा जानबूझकर समाज के सबल व निर्बल अपने-अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए इन पंक्तियों का उपयोग करते चले आ रहे हैं.
साधारणतः समाज में इसका यह अर्थ लगाया जाता है कि समर्थवान के दोष को नहीं देखना चाहिए अथवा समर्थवान त्रुटि करने पर भी निर्दोष है अथवा समर्थवान दोष रहित होता है . दोषी सदैव कमजोर ही होता है अथवा सिध्द कर दिया जाता है.
अर्थ का अनर्थ कर-कर के लोगों ने इन पंक्तियों के वास्तविक अर्थ को विलुप्त कर दिया अथवा समाज के समर्थवान लोगों ने स्वयं अथवा उनके चाटुकारों ने तुलसीदास जी की उक्त पंक्तियों का अवलम्ब लेकर समाज को शक्तिशाली की शक्ति का एहसास दिलाने की कोशिश की. और इसी कारण तुलसीदास जी पर आरोपों की झडी लगाकर उन्हें सामंतशाही व्यवस्था का पक्षधर तक कह दिया. लेकिन लोगों ने यह नहीं सोचा जिस तुलसीदास के काव्य ग्रन्थ का आधार श्री हरिराम का चरित्र और उच्च आदर्शों वाले समाज की कल्पना हो उनकी सोच इतनी छोटी नहीं हो सकती.
वास्तविक अर्थ पर एक द्रष्टि का प्रयास....'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'...समरथ(सम् +अर्थ) में पशुबल अथवा बाहुबल का भाव नहीं . उसमें भाव आत्मबल का है. जो कर्मो व विचारों से दोष रहित हो .जिसके कर्म भेद- भाव वाली बुद्धि से प्रेरित नहीं होते .इसीलिए उन्होने आगे कहा कि 'रवि पावक सुरसरि की नाई' इनके कार्य भी भेदभाव रहित ही हैं.जो दोष रहित वही समर्थवान है. ईश्वर के अलावा दोषरहित दूसरा नहीं .इसीलिए समर्थवान और सर्वशक्तिमान सिर्फ एक वही है जो दोष रहित है .गीता में भी कहा गया है 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म'. अतः इस भौतिक जगत में यदि कोई वास्तव में दोष रहित है तो उसे भी समर्थवान समझा जा सकता है .
Thankyou buddy.... :-)
समरथ को नहीं दोष गुसाईं ,रवि पावक सुरसरि की नाई'
उक्त पंक्तियों में 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' का वास्तविक अर्थ न जानते हुए अथवा जानबूझकर समाज के सबल व निर्बल अपने-अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए इन पंक्तियों का उपयोग करते चले आ रहे हैं.
साधारणतः समाज में इसका यह अर्थ लगाया जाता है कि समर्थवान के दोष को नहीं देखना चाहिए अथवा समर्थवान त्रुटि करने पर भी निर्दोष है अथवा समर्थवान दोष रहित होता है . दोषी सदैव कमजोर ही होता है अथवा सिध्द कर दिया जाता है.
अर्थ का अनर्थ कर-कर के लोगों ने इन पंक्तियों के वास्तविक अर्थ को विलुप्त कर दिया अथवा समाज के समर्थवान लोगों ने स्वयं अथवा उनके चाटुकारों ने तुलसीदास जी की उक्त पंक्तियों का अवलम्ब लेकर समाज को शक्तिशाली की शक्ति का एहसास दिलाने की कोशिश की. और इसी कारण तुलसीदास जी पर आरोपों की झडी लगाकर उन्हें सामंतशाही व्यवस्था का पक्षधर तक कह दिया. लेकिन लोगों ने यह नहीं सोचा जिस तुलसीदास के काव्य ग्रन्थ का आधार श्री हरिराम का चरित्र और उच्च आदर्शों वाले समाज की कल्पना हो उनकी सोच इतनी छोटी नहीं हो सकती.
वास्तविक अर्थ पर एक द्रष्टि का प्रयास....'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'...समरथ(सम् +अर्थ) में पशुबल अथवा बाहुबल का भाव नहीं . उसमें भाव आत्मबल का है. जो कर्मो व विचारों से दोष रहित हो .जिसके कर्म भेद- भाव वाली बुद्धि से प्रेरित नहीं होते .इसीलिए उन्होने आगे कहा कि 'रवि पावक सुरसरि की नाई' इनके कार्य भी भेदभाव रहित ही हैं.जो दोष रहित वही समर्थवान है. ईश्वर के अलावा दोषरहित दूसरा नहीं .इसीलिए समर्थवान और सर्वशक्तिमान सिर्फ एक वही है जो दोष रहित है .गीता में भी कहा गया है 'निर्दोषं हि समं ब्रह्म'. अतः इस भौतिक जगत में यदि कोई वास्तव में दोष रहित है तो उसे भी समर्थवान समझा जा सकता है .
Hope it helps....please mark as BRAINLIST... :D