Hindi, asked by guptashambhu801, 6 months ago

समष्टि में ही व्यष्टि रहती है।व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व- प्रेम ,सर्वभूत-हित- कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो,इस अपने ने क्या अन्याय कियाहै जो इसका बहिष्कार हो?​

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Answered by bhatiamona
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समष्टि में ही व्यष्टि रहती है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व- प्रेम ,सर्वभूत-हित- कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो,इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो?

यह कथन ‘जयशंकर प्रसाद’ द्वारा रचित “स्कंद गुप्त” नामक नाटक के द्वितीय अंक से लिया गया है। इस कथन की वक्ता नाटक की एक पात्र ‘जयमाला’ है, जो यह कथन नाटक की एक अन्य पात्र ‘देवसेना’ से कह रही है।

“स्कंदगुप्त” नाटक “जयशंकर प्रसाद” द्वारा रचित एक ऐतिहासिक नाटक है। इसके मुख्य पात्र स्कंदगुप्त, कुमारगुप्त, गोविंदगुप्त, पर्णदत्त, चक्रपालित, भीमवर्मा, बंधुवर्मा, कुमारदास, जयमाला, देवसेना, विजया, कमला, रामा। मालिनी, पृथ्वी सेन आदि हैं। यह नाटक 5 अंकों में विभाजित है।

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