समष्टि में ही व्यष्टि रहती है।व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व- प्रेम ,सर्वभूत-हित- कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो,इस अपने ने क्या अन्याय कियाहै जो इसका बहिष्कार हो?
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समष्टि में ही व्यष्टि रहती है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व- प्रेम ,सर्वभूत-हित- कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो,इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो? यह कथन 'जयशंकर प्रसाद' द्वारा रचित “स्कंद गुप्त” नामक नाटक के द्वितीय अंक से लिया गया है।
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