sambhasan kusalta ka sanchhep
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मंच पर बैठकर उपस्थित जन-समुदाय के सम्मुख किसी एक विषय पर प्रवचन करना ऐसा सुयोग है जो कभी-कभी ही संभव हो सकता है। हर दिन हर समय वह किसी के लिए शक्य नहीं। न उससे काम ही चलता है। प्रशिक्षण, परामर्श, उद्बोधन, यदा-कदा की बात है। पर्व त्यौहारों का माहौल हर दिन नहीं रह सकता। उस उत्साह का प्रकटीकरण कभी-कभी ही उपयुक्त लगता है। शेष समय तो स्वाभाविक काम काजी स्थिति में ही गुजरता है।
आदान-प्रदान ही नित्यक्रम में स्थान पाता है। ग्राहक-व्यापारी एक दूसरे से अपनी बात कहते हैं और सौदा पटा लेते हैं। पूछ-ताछ जांच-पड़ताल, कुशल, क्षेत्र, स्वागत, विदाई, करना-कराना, शंका-समाधान; आदेश परिपालन, हंसना-हंसाना आदि के उपक्रम वार्तालाप के विषय होते हैं। इसी के सहारे बात बनती है और काम चलते हैं। साहित्यिक भाषा में इसे संभाषण कहते हैं। यह भी एक कला है। सच तो यह है कि सबकी प्रवीणता, मंचप्रवचनों से भी अधिक उपयोगी, तथा आवश्यक है। वार्ता कुशल व्यक्ति दूसरों को प्रभावित करते और अपनी मर्जी पर चलाते देखे गये हैं। जब कि इस कौशल से रहित व्यक्ति अपने मन की बात कह ही नहीं पाते, फलतः दूसरों को प्रभावित करना, अनुकूल बनाना, समर्थन पाना संभव ही नहीं होता। उलटे दूसरों के तर्क, कथन परामर्श एवं दबाव के नीचे आत्म समर्पण करते देखे जाते हैं।
वाक् चातुर्य में प्रवीण व्यक्ति उनसे येनकेन प्रकारैण ही करा लेते हैं। फिर वचन पालन की दुहाई देकर उसे करने का दबाव डालते हैं। यद्यपि वह बात उस दबाव से भी आधी-अधूरी ही गले उतरी थी और पीछे सोचने पर वह सर्वथा अनुपयुक्त प्रतीत हुई। तर्क करते टालते न आरंभ में बना और न इनकारी का साहस पीछे हुआ। इस पर न करने योग्य करते—न मानने योग्य मानते देखे जाते हैं। आत्महीनता के कारण अपना, तर्क, पक्ष, असमंजस, कारण प्रकट ही नहीं कर पाते और वह कह या कर बैठते हैं जो उपयुक्त नहीं था।
यह आत्म रक्षा वाला पक्ष हुआ। अब वह प्रसंग सामने आता है जिसमें अपनी बात किसी के सम्मुख रखनी है, उससे सहमत करना है, साथी बनाना या सहयोग लेना है। यह भी आवश्यक है। इस संसार में अकेलेपन से काम नहीं चलता। सहयोग आवश्यक है, सम्मिलित प्रयासों से ही छोटे-बड़े काम चलते हैं। शरीर के अवयव मिलजुल कर काम करें तो स्वास्थ्य ठीक रहे। घर के लोग हिल मिल कर रहें तो परिवार चले। व्यवसाय में भी यही बात है। पाठशाला से लेकर शासनतंत्र तक में सम्मिलित प्रयत्न ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। उनमें सहकार एवं अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है। इसे बनाये रहने के लिए असन्तोष एवं विग्रह को टालने के लिए दूसरे की सुनना और अपनी कहना आवश्यक है। यही वार्तालाप या संभाषण है जिसे जीवन निर्वाह व्यवसाय जैसे निजी और समाज शासन जैसे सामूहिक क्षेत्रों में निरन्तर कार्यान्वित करना पड़ता है। जो नित्य ही करना है, उसके गुण-दोषों को सफलता के कारणों को, उपयुक्त स्तर की प्रयोग प्रक्रिया को भी जानना चाहिए। अन्यथा प्रसंग उपयुक्त एवं दोनों का हित होते हुए भी बात बिगड़ जायेगी। वाणी-दोष या व्यवहार अनगढ़ होने से सामने वाला चिढ़ जायेगा और उस चिढ़ की परिणति उस उद्देश्य की विफलता में होगी जिसे अच्छा ‘मूड’ रहने पर सरलता पूर्वक सहमति की सफलता तक पहुंचाया जा सकता था और उससे दोनों पक्षों को लाभ मिल सकता था।