samvaad kaumudi mei prakashit stri vishayak lekho ki vivechna kijiye.
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स्त्री संघर्ष की भूमिका सीमित थी, अंग्रेजों से लड़ने तक
रमाबाई जैसी जो स्त्रियाँ इस परम्परागत खाँचे में फिट नहीं हो पाईं उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया| तत्कालीन परिस्थिति में स्त्री संघर्ष को इसी राष्ट्रवादी आन्दोलन की जमीन से स्वयं को अभिव्यक्त करना पड़ा| उस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन और स्त्री आन्दोलन को अन्योन्याश्रित भी कहा जा सकता है जबकि वैश्विक विचारधारा के अनुसार राष्ट्रवाद और स्त्रीवाद एक-दूसरे पर आश्रित नहीं हैं| जिस प्रकार स्त्री आन्दोलन को राष्ट्रवादी आन्दोलन के बीच से ही अपना स्वरुप तलाशना पड़ा और अपना आधार बनाना पड़ा उसी प्रकार राष्ट्रवादी स्वतंत्रता आन्दोलन को भी अंग्रेजों के खिलाफ आधी आबादी के संघर्ष की जरूरत थी| राष्ट्रवादी आन्दोलन के अगुआओं के लिए स्त्रियों के संघर्ष की भूमिका अंग्रेजों से लड़ने तक ही थी न कि उसके साथ स्त्री के अपने सामाजिक और सांस्कृतिक व्यक्तित्व और पहचान के सन्दर्भ में| स्वतंत्रता के बाद भी स्त्री का पूरा व्यक्तित्व और उसकी अपनी स्थिति पितृसत्तात्मक परिवार के दमघोंटू माहौल से ही बंधे रहने के लिए अभिशप्त था क्योंकि स्त्री के स्तर से इन नेताओं के पास न तो कोई और विकल्प था और न ही उस विकल्प की कोई अवधारणा|
और मंच पर संगठित होने लगी स्त्रियाँ, पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ़
उन्नीसवीं सदी तक समाजसुधार और राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख स्त्री संघर्ष बीसवीं सदी के आरम्भ में स्त्री अधिकारों के प्रति भी सचेत हुआ| यह समय ऐसा रहा जब पूरे भारत में स्त्रियाँ राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर संगठित हुईं और अनेक स्थानीय संगठन भी इनसे जुड़े| 1908 में हुआ लेडिज कांग्रेस का सम्मलेन हो या 1917 में गठित विमेंस इंडियन असोसिएशन ऐसे ही बड़े संगठन थे| भारत में स्त्रियों के ऐसे संगठनों की सबसे बड़ी विडंबना रही हिन्दू धर्म और उस समय की पुनरुत्थानवादी राष्ट्रीय विचारधारा| एक ओर जहाँ रमाबाई जैसी स्त्री को हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ा वहीँ दूसरी ओर होमरूल जैसे आन्दोलन का हिंदुत्व से ओत-प्रोत धार्मिक स्वरुप जिसमें स्त्रियों की बड़े स्तर पर सक्रिय भागीदारी थी| यही एक बड़ा कारण रहा दलित आन्दोलन और स्त्री आन्दोलन की संवेदनात्मक स्तर की दूरी का भी| फिर भी संघर्ष की इस लम्बी परम्परा को किसी भी स्तर से नकारा नहीं जा सकता है जहाँ स्त्रियाँ अपने अधिकारों की माँग के साथ खड़ी हो रही थीं| सरला देवी जैसी पुनरुत्थानवादी स्त्री ने भी विधवाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों की माँग की थी| इस रूप में उस समय स्त्रियों की लड़ाई दोहरे स्तर पर चल रही थी, एक तो उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ दूसरे अपने घर में उनकी नियति निर्धारित करने वाली पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ|
उठने लगी अपने अधिकारों की मांग
1918 ई. के कांग्रेस बैठक में स्त्रियों को दिए गये मताधिकार को भी राष्ट्रवादी आन्दोलन की अपनी जरूरतों और उसमें से उभरते स्त्री आन्दोलन के सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता है| राष्ट्रवादी जरूरतों से तात्पर्य साम्राज्यवादियों की उस विचारधारा से लड़ने के परिप्रेक्ष्य में है जो मेयो के ‘मदर इंडिया’ में दिखाई देती है| स्त्रियों के अपने अधिकारों की माँग और साम्राज्यवादी ताकतों से लड़ने में उनकी भूमिका इस मताधिकार की पृष्ठभूमि निर्मित करता है| स्त्री का मताधिकार भी स्त्री के हक़ और न्याय की उन तमाम मांगों से जुड़ा हुआ था जिसके लिए सावित्रीबाई, रमाबाई, काशीबाई कानितकर, आनंदीबाई, मैरी भोरे, गोदावरी समस्कर, पार्वतीबाई, सरला देवी, भगिनी निवेदिता से लेकर भिकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा जैसी स्त्रियों ने अनेक स्तरों पर संघर्ष किया और ऐसे हजारों नाम इतिहास के पन्ने पर लिखे जा सकते हैं| एनी बेसेंट ने मार्गरेट कूजिंस, सरोजिनी नायडू आदि के साथ स्त्रियों के मताधिकार की माँग की थी| कांग्रेस की राष्ट्रवादी विचारधारा का पूरा प्रभाव एनी बेसेंट और सरोजिनी नायडू जैसी स्त्रियों के ऊपर था|
दूसरे शब्दों में कहें तो साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक ऐसी स्त्री राष्ट्रवाद के अंतर्गत गढ़ी जा रही थी जो एक ओर तो उपनिवेशवाद के खिलाफ अपना सर्वस्व झोंक दे लेकिन दूसरी ओर स्त्रियों के लिए बनाये गये नियमों के आधुनिक रूप में बंधी रहे| स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व या अस्मिता से उसका कोई सरोकार न हो|