Hindi, asked by Arookumar79661, 10 months ago

Samvad lekhan on sarva bhavantu sukhina

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Answered by tanujyadav28
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Answer:

hey mate

Explanation:

आज जब धर्मं की बात की जाती है तो सभी मत और मजहबों को एक ही श्रेणी में रखकर सभी धर्मों को समान कहने की धूर्तता अंधाधुंध चल रही हैं. तुलनात्मक विवेचन सभी मजहबों को कोसों दूर कर बौना सिद्ध कर देता हैं.क्योंकि मजहब केवल संकीर्णता नर्क का भय और न मानने वालों पर यातनाएं ही सिखाता हैं. मगर जब भारत के धर्म और हिन्दू संस्कृति की बात आती है तो इसने कभी स्वयं को सिमित नहीं कियान कभी उन लोगों को पराया समझा जो हमसे अलग दीखते है अलग रहते और अलग विचार हैं. हिन्दू धर्म ने समस्त संसार को अपना परिवार मानकर सभी के सुखी और निरोगी होने की कामना की हैं. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॐ शांतिः शांतिः शांतिः की सोच उन सभी संकीर्ण मतों को निरुतर कर देता है जो उन्हें मानने वालों को स्वर्ग सुख और नाना प्रकार के सपने दिखाता है जबकि न मानने वालों को मारे जाने योग्य बता देता हैं.

देवभाषा संस्कृत के इस श्लोक का अर्थ यह है कि संसार के समस्त प्राणी (पशु, पक्षी, मनुष्य समेत) सुखी रहे वे रोगों से दूर रहे तथा सभी के मंगल अवसरों के सहभागी बने तथा कोई भी दुःख का भागी ना बने. अशांति और भय के युग में जी रहे संसार की समस्त तकलीफों का समाधान इसी भाव में निहित हैं. यदि हम अपने परम पिता परमेश्वर से सभी के कल्याण हेतु प्रार्थना करे तो निश्चय ही कोई दीन दुखी नहीं रहेगा. प्रार्थना सर्वाधिक शक्तिमान है यदि वह समवेत स्वर में हो तो ईश्वर द्वार अवश्य सुनी जाती हैं.

समस्त जीव उसी ब्रह्म की संताने है अपनी अज्ञानता के चलते वह एक ही पिता की संतानों में भेद कर अपने पिता को भूलकर मायाजाल में भ्रमित हो जाता हैं. अपनी इस भूल के चक्कर में वह कष्ट पाता भी है और अन्यों को कष्ट देता भी हैं. अथर्ववेद में उल्लेखित इस भावना को हम अपने ह्रदय में जगाए तथा समस्त आपसी भेदो को भूलकर सभी के भले की कामना करे तो निश्चय ही पिता प्रसन्न होगा चाहे कोई उसे किसी रूप में मानता हैं.

वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ परम मानवीय मूल्य संसार को एक परिवार में बाँधने में सफल हो सकता हैं. व्यष्टि के सृष्टि में समाहित होने का यह भाव व्यक्ति, परिवार, समाज और देश की परिधियों को मिटाकर मानवता के धर्म से जोड़ता हैं. एक श्रेष्ठ विश्व की कामना तभी सफल होगी जब जन जन स्व से ऊपर उठकर परहितकारी बनेगा तथा अपने ह्रदय में विश्व बन्धुत्व के भाव को रखेगा.

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