San samaba ram sahra karu ki nahi essay in marathi
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भारत
अगर आचार्य रामदास की मुहिम चलती रहती तो हिंदी में विज्ञान लेखन की इतनी दुर्गति न होती
09:33 AM Feb 17, 2019 | कृष्ण प्रताप सिंह

पुण्यतिथि विशेष: 12 सितंबर, 1937 को अंतिम सांस लेने वाले आचार्य रामदास गौड़ द्वारा पैदा की गई वैज्ञानिक चेतना का ही परिणाम था कि उन दिनों विज्ञान लेखकों की गणना भी साहित्यकारों में की जाती थी.
आचार्य रामचंद्र गौड़
हिंदी में विज्ञान लेखन का वर्तमान खस्ताहाल किसी से छिपा नहीं है. भले ही वह भारतेंदु हरिश्चंद्र के काल में ही शुरू हुआ हो (जैसा कि भोपाल में हुए दसवें हिंदी साहित्य सम्मेलन में एक अनुमान के हवाले से दावा किया गया था) और अपने सवा सौ साल पूरे कर चुका हो या कि हिंदी में 250 लेखिकाओं समेत 3000 से अधिक विज्ञान लेखक हुए हों और उनमें 160 से अधिक 1965 से लगातार विज्ञान लेखन में संलग्न हों.
वस्तुस्थिति अभी भी कुल मिलाकर यही है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी इस भाषा के लिए विज्ञान की उच्चस्तरीय पढ़ाई में जगह बनाना संभव नहीं हो पाया है. मोटे तौर पर इसके बड़े कारणों में वैज्ञानिक विषयों की अच्छी पुस्तकों और सर्वस्वीकार्य पारिभाषिक शब्दावली का सुलभ न होना तो है ही, हिंदी भाषी क्षेत्र में वैज्ञानिक चेतना व मिजाज और साथ ही अपनी भाषा को लेकर स्वाभिमान का सर्वथा अभाव भी है.
इन हालात में मौलिक विज्ञान लेखन की तो बात भी क्या की जाए, विज्ञान की दूसरी भाषाओं में लिखी गई पुस्तकों के हिंदी में जो अनुवाद उपलब्ध हैं, उनमें भी ज्यादातर मशीनी हैं या फिर इतने कठिन कि पढ़ने वाला उनसे पनाह मांगने और कहने लगे कि उसे उनके मुकाबले अंग्रेजी ही आसान लगाती है.
क्या आश्चर्य कि इस सबके चलते अब कई ‘स्वनामधन्य’ हिंदी को केवल विज्ञापन, बाजार और मनोरंजन वगैरह की भाषा मानते हैं, वैज्ञानिक विमर्शों के अनुपयुक्त बताते और उनकी भाषा मानते ही नहीं.
ऐसे में आपके लिए यह जानना बेहद दिलचस्प या कि सुखद आश्चर्य जैसा हो सकता है कि पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारत में 1913 से 1937 के बीच आचार्य रामदास गौड़ ने विज्ञान के शुष्कतम विषयों को भी प्रीतिकर हिंदी में लिखने व पाठकों तक पहुंचाने की जो मुहिम चलायी थी, वह उनके संसार को अलविदा कहते ही ठप न पड़ जाती, तो आज यह हिंदी में विज्ञान लेखन की हालत इतनी खस्ता न होती.
प्रसंगवश, रामदास गौड़ का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में 21 नवम्बर, 1881 को हुआ, जहां उनके पिता ललिता प्रसाद पहले तो चर्च मिशन हाईस्कूल में अध्यापक थे, लेकिन बाद में नौकरी छोड़कर वकालत करने लगे थे.