Sandharitra ki dharita kin do baton per nirbhar karti hai
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संधारित्र : हमने देखा था की चालक का आकार बढाकर उसकी धारिता (इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की क्षमता ) बढ़ाई जा सकती है , लेकिन किसी चालक की धारिता बढ़ाने के लिए उसके आकार में वृद्धि करना एक अच्छा उपाय नहीं है इसलिए संधारित्र का उपयोग हुआ।
संधारित्र एक ऐसी युक्ति है जिसमे चालक के आकार में परिवर्तन किये बिना उसकी धारिता बढ़ायी जा सकती है।
धारिता C = q /C
संधारित्र में q (आवेश) का मान स्थिर करके विभव (V) में कमी की जाती है जिससे धारिता का मान बढ़ जाता है।
संधारित्र में दो चालक प्लेट होती है , दोनों प्लेटें एक दूसरे के निकट स्थित होती है , एक प्लेट को धनावेश देने के लिए बैटरी के धनात्मक सिरे से तथा दूसरी प्लेट को ऋणात्मक सिरे से जोड़ा जाता है जिससे एक प्लेट धनावेशित तथा दूसरी प्लेट ऋणावेशित हो जाती है।
अब बैट्री को हटा लिया जाए तो भी एक प्लेट पर धनावेश तथा दूसरी प्लेट पर उतनी ही मात्रा में ऋणावेश संरक्षित रह जाता है , अतः हम यह भी कह सकते है की संधारित्र एक आवेश संचय युक्ति है जिसमे आवेश संचयित (save) रहता है।
संधारित्र में कुल आवेश शून्य होता है क्योंकि जितना धनात्मक आवेश है उतना ही ऋणावेश भी है , संधारित्र की दोनों प्लेटों के मध्य विद्युत विभवान्तर पाया जाता है जिसे संधारित्र का विभव कहते है।
माना संधारित्र की किसी प्लेट पर q आवेश उपस्थित है अतः हम जानते है की विभव आवेश बढ़ाने पर बढ़ता है अर्थात समानुपाती होता है।
q ∝ V
q = CV
संधारित्र की प्लेट किसी भी आकार की हो सकती है , आयताकार , बेलनाकार या गोलाकार इत्यादि।
संधारित्र की धारिता का मान प्लेट की आकृति , आकार , दोनों प्लेटों के मध्य की दुरी तथा दोनों प्लेटो के बीच के माध्यम पर निर्भर करता है।
संधारित्र में विद्युत ऊर्जा संरक्षित रहती है।
संधारित्र का प्रतिक , अर्थात इसको निम्न प्रकार दर्शाया जाता है
संधारित्र और सिद्धांत : वह युक्ति जिसमे चालक के आकार को बिना बदले उसकी धारिता बढाई जा सकती है , संधारित्र कहलाती है।
किसी चालक को q आवेश देने पर यदि उसका विभव V हो जाता है तो उसकी धारिता –
C = q/V
स्पष्ट है कि यदि किसी प्रकार आवेश q के लिए विभव का मान V से कम हो जाए तो चालक की धारिता C बढ़ जाएगी। इसी विचार से संधारित्र की खोज की गयी।
संधारित्र का सिद्धांत निम्नलिखित तीन पदों में समझा जा सकता है –
1. माना किसी चालक A को q आवेश देने पर उसका विभव V हो जाता है तो उसकी धारिता –
C = q/V
2. अब यदि चालक A के पास इसी प्रकार का दूसरा अनावेशित चालक B लाया जाए तो प्रेरण द्वारा उसका आवेशन चित्र की तरह हो जाता है।
3. अब यदि चालक B को पृथ्वी से सम्बंधित कर दिया जाए तो उसका समस्त धनावेश पृथ्वी में चला जायेगा और नवीन स्थिति में यदि चालक A का विभव V’ हो तो A की धारिता –
C’ = q/V’
दोनों समीकरणों से –
C’/C = (q/V’)/(q/V) = V/V’
लेकिन V’ = चालक A के आवेश के कारण विभव + चालक B के आवेश के कारण उत्पन्न विभव
V’ = V – V”
इस समीकरण से स्पष्ट है कि –
V > V’
चूँकि C’ > C
अर्थात जब एक आवेशित चालक के पास दूसरा अनावेशित और पृथ्वी से सम्बंधित चालक लाया जाता है तो पहले चालक की धारिता बढ़ जाती है , यही संधारित्र का सिद्धांत है।
इस प्रकार उक्त सिद्धांत से स्पष्ट है कि संधारित्र में दो पृथक्कृत धात्वीय प्लेटे होती है जिसमे एक को आवेश दिया जाता है और दूसरी को पृथ्वी से समबन्धित कर देते है। जब प्लेटो के मध्य किसी परावैद्युत माध्यम की जगह वायु होती है तो उसे वायु संधारित्र कहते है।
संधारित्र किसे कहते है ?
किसी संधारित्र में दो चालक प्लेटें होती है जो कि अचालक या परावैद्युत पदार्थ के द्वारा पृथक्कृत होती है।
जब अनावेशित चालक को , आवेशित चालक के पास लाया जाता है तो चालकों पर आवेश समान रहता है लेकिन विभव में कमी हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप धारिता में वृद्धि हो जाती है।
किसी संधारित्र में चालकों पर आवेश समान लेकिन विपरीत प्रकृति का होता है।
चालकों को संधारित्र की प्लेटें कहते है। संधारित्र की आकृति के आधार पर संधारित्र का नाम दिया जाता है।
संधारित्र से सम्बंधित सूत्र –
Q = CV
C = Q/V
यहाँ Q = संधारित्र की धनात्मक प्लेट का आवेश
V = संधारित्र की धनात्मक और ऋणात्मक प्लेट के मध्य विभवान्तर
C = संधारित्र की धारिता
संधारित्र में संचयित ऊर्जा U = Q2/2C = CV2/2 = QV/2
संधारित्र के विद्युत क्षेत्र में ऊर्जा संचित होती है , जिसका ऊर्जा घनत्व dU/dV = εE2/2 या ε0εrE2/2
आकृति और व्यवस्था के आधार पर संधारित्र निम्नलिखित प्रकार के होते है –
समान्तर प्लेट संधारित्र
गोलीय संधारित्र
बेलनाकार संधारित्र
संधारित्र की धारिता निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करती है –
प्लेटों के क्षेत्रफल पर
प्लेटो के मध्य की दूरी पर
प्लेटों के मध्य माध्यम के पराविद्युतांक पर
Explanation:
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