Hindi, asked by mohit606113, 1 year ago

Sanskrit Mein 10 shlok Arth sahit​

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Answered by saltanat31
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Answer:

sanskrit shlok 1 :

अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् ||

अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |

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sanskrit shlok 2 :

नास्त्युद- यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||

अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |

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sanskrit shlok 3 :

एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||

अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |

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sanskrit shlok 4 :

श्रुतवानप- मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो- जनः ||

अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |

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sanskrit shlok 5 :

मानोन्नति- दिशति पापमपाकरोत- ि |

सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ||

अर्थात्: अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है ,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है |(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती |

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sanskrit shlok 6 :

चन्द्रचन्- नयोर्मध्य- शीतला साधुसंगतिः- ||

अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |

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sanskrit shlok 7 :

उदारचरिता- ां तु वसुधैव कुटुम्बकम्- |

अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों- की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |

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sanskrit shlok 8 :

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||

अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |

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sanskrit shlok 9 :

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन ,

परोपकारैर- न तु चन्दनेन ||

अर्थात् :कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों- का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |

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sanskrit shlok 10 :

कार्यकाले समुत्तपन्न- े न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते

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