sanskriti ma vigyapano ki kya bhumika hai
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उपभोक्तावाद की संस्कृति में विज्ञापन सेना का काम करते हैं। वे उपभोक्तावाद को भड़काते हैं। नक़ली माँग खड़ी करते हैं। लोगों की लालच बढ़ाते हैं जिससे उनमें ज़रुरत न रहने पर भी वस्तुओं को खरीदने तथा उन्हें भोगने की इच्छाएँ जागृत हो जाते हैं। हर विज्ञापन वस्तुओं को नए ढंग से पेश करता है। इससे उपभोक्ता को पुरानी वस्तु बेकार लगने लगती है। उदाहरण के तौर पर पेस्ट या साबुन को ही लें - इनके बिभिन्न प्रकार, उपभोक्ता को पागल बना डालते हैं।
आजकल उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कारण हमारी अपनी सांस्कृतिक पहचान, परम्पराएँ, आस्थाएँ घटती जा रही है। सामाजिक संबंधों में दूरी आ रही है। विज्ञापन और प्रचार-प्रसार की शक्तियाँ हमें सम्मोहित कर रही हैं। हमें यह समझना चाहिए कि विज्ञापनों का एक बहुत बड़ा सामाजिक दायित्व है। विज्ञापनों में समाज को प्रभावित करने की शक्ति सरकार, व्यापार तथा समाज के लिए वरदान हैं। परन्तु गलत हाथों में पड़कर इनका दुरूपयोग हो रहा है। इस दुरूपयोग से बचा जाना चाहिए।
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आजकल उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कारण हमारी अपनी सांस्कृतिक पहचान, परम्पराएँ, आस्थाएँ घटती जा रही है। सामाजिक संबंधों में दूरी आ रही है। विज्ञापन और प्रचार-प्रसार की शक्तियाँ हमें सम्मोहित कर रही हैं। ... विज्ञापनों में समाज को प्रभावित करने की शक्ति सरकार, व्यापार तथा समाज के लिए वरदान हैं|