Hindi, asked by mdumarfarooq46, 8 months ago

santh tukaram ka charitra ma kya kya veshashtaya ​

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Answered by thrichu
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संत तुकाराम (१६०८-१६५०), जिन्हें तुकाराम के नाम से भी जाना जाता है सत्रहवीं शताब्दी एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे।

संत तुकाराम

गुरु/शिक्षक

बाबाजी चैतन्य

दर्शन

वारकरी, वैष्णव संप्रदाय

खिताब/सम्मान

संत मराठी में जिसका अर्थ है "संत"

साहित्यिक कार्य

अभंग भक्ति कविता

धर्म

हिन्दू

दर्शन

वारकरी, वैष्णव संप्रदाय

तुकाराम का जन्म पुणे जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के संबंध में विद्वानों में मतभेद है तथा सभी दृष्टियों से विचार करने पर शके 1520 में जन्म होना ही मान्य प्रतीत होता है। पूर्व के आठवें पुरुष विश्वंभर बाबा से इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके कुल के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा (वारी) के लिये नियमित रूप से जाते थे। देहू गाँव के महाजन होने के कारण वहाँ इनका कुटूंब प्रतिष्ठित माना जाता था। इनकी बाल्यावस्था माता कनकाई व पिता बहेबा (बोल्होबा) की देखरेख में अत्यंत दुलार से बीती, किंतु जब ये प्राय: 18 वर्ष के थे इनके मातापिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़ भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई। विपत्तियों की ये बातें झूटी हैं संत तुकाराम उस जमाने में बहुत बड़े जमीदार और सावकार थे ये झुटे बातेहै ये लिखावटे झूठी है ज्वालाओं में झुलसे हुए तुकाराम का मन प्रपंच से ऊब गया। इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त को शांति मिले, इस विचार से तुकाराम प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।

प्रपचपराड्म़ुख हो तन्मयता से परमेश्वर प्राप्ति के लिये उत्कंठित तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने माघ शुद्ध 10 शके 1541 में 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। सच्चे वैराग्य तथा क्षमाशील अंत:करण के कारण इनकी निंदा करनेवाले निंदक भी पश्चताप करते हूए इनके भक्त बन गए। इस प्रकार भगवत धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते हुए अधर्म का खंडन करनेवाले तुकाराम ने फाल्गुन बदी (कृष्ण) द्वादशी, शके 1571 को देवविसर्जन किया।

तुकाराम के मुख से समय समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होनेवाली 'अभंग' वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति नहीं है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 अभंग आज उपलब्ध हैं।

प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं।

दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चनम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकता मराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है।

किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।

इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों की उन्होने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।

तुकाराम मन से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराशा, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होने सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना chahie

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