Hindi, asked by Shirin1972, 1 day ago

Sanvad lekhan internet ek mahajal

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Answered by saritavats1984
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पिछले दो-तीन वर्षों पूर्व सुषमा स्वराज जी का एक वक्तव्य सुना, तब वे सूचना-प्रसारण मंत्री नहीं थीं। लेकिन जब वे सूचना- प्रसारण मंत्री थीं तब की स्मृतियाँ वे टटोल रहीं थीं अपने वक्तव्य में। विषय था मातृत्व। माँ द्वारा बच्चे को संस्कार।

भारत में अंतरताने इंटरनेट सर्फिंग की मँजूरी उन्हीं के समय में दी गई। अधिकारियों व मंत्रियों की चिंता थी कि कहीं इसके भारत में प्रवेश से हमारी सांस्कृतिक धरोहर को कोई नुकसान न पहुँचे। इससे हमारे बच्चों का भविष्य कैसा होगा..? आदि। इन शंकाओं का एक हल सुषमा जी ने दिया, उसका भाव यह कि अंतरताना चूँकि हमारे नये युग की ओर बढ़ते कदमों में सहायक है, उसमें ज्ञान का अकुत भंडार है। और भी कई अर्थों में वह हमें उन्नति में सहायक है, तो अपने देश के नौनिहालों को हम इस सुविधा से वंचित न रखें। ‘हमें अपने वातायन खुले रखने चाहिए, लेकिन पहरेदारों को चौकस कर दो।’

मुझे यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी। वास्तव में सभी लोग यही चाहते हैं कि उनके बच्चे आगे बढ़ें, उन्नति करें, परंतु अपनी मान्यताओं व नियमों को साथ लेकर। इसलिए आवश्यक है बचपन से ही उन्हें एक विस्तृत संसार दें तथा अपनी नज़र रखें। वास्तव में मैं पिछले अनेक वर्षों से अंतरताने का प्रयोग कर रही हूँ। अनेक तरह का ज्ञान -भंडार जो मुझे और कहीं नहीं मिलता, वह यहाँ पर माउस क्लिक करो कि उपलब्ध। इसकी शुरुआत भी मैंने बच्चों के प्रोजेक्ट बनाते समय की। इतनी पुस्तकें ढूंढ़ डाली, चित्रों के लिए भी कभी यहाँ से कटिंग तो कभी वहाँ से। लेकिन अंतरताने में जो भी ढूंढ़ा, तुरंत हाजिर। भारतीय गाय पर भी सामग्री मिली। वास्तव में खुशी हुई कि हमारे भारतीय ज्ञान में आज भी किसी से पीछे नहीं। युवा समूह, युथ क्लब किस प्रकार अपनी ही तरह से देशभक्ति में लगा है, युथ क्लब की साइट पर किस प्रकार युवा वर्ग विवेकानंद जी की स्मृतियों के साथ जुड़ा है, सुखद अहसास मिला। (परन्तु जिस प्रकार व तेजी से हमारी नई पीढ़ी पतन की ओर जा रही है, लगता है हम विचारों में तो स्वदेशी होना चाहते हैं, अपनी मान्यताओं व संस्कारों से जुड़े रहना चाहते हैं, परन्तु आज की जीवनशैली, पाश्चात्य चमक-धमक और रोजी-रोटी हमें उस अपसंस्कृति की ओर धकेल रही है।)

खैर, मैंने अपने वातायन खोल दिए थे। बच्चों को भी यह विस्तृतता आकर्षित कर रही थी। सब अच्छा चल रहा था। सामाजिक कार्यों में व्यस्तता के बीच एक दिन अचानक मैं जब एक बैठक से वापिस लौटी तो बच्चों के चेहरों पर व्याप्त थोड़ा भय मुझे चौंका गया। कुछ था कि वे मुझे कहना चाह रहे थे, लेकिन भयभीत थे शायद मेरी प्रतिक्रिया क्या होगी? इस बात की हिचकिचाहट थी। बच्चे जैसे- जैसे बड़े होते जाते हैं, अच्छा-बुरा समझने लगते हैं, तो अनजाने में हुई गलतियों पर भी पर्दा डालते हैं।

परंतु छोटी बिटिया चूंकि छोटी थी, और तुरंत अच्छा-बुरा न समझते हुए अपनी पूरी गतिविधियों को मेरे साथ बाँटती। मेरी नज़रें बच्चों को टटोल रही थीं, परिणामतः जो कुछ पता चला, मुझे अचंभे से ज्यादा भयभीत कर गया। कच्ची उम्र में इंटरनेट पर अनजाने में जो तस्वीरें उन्होंने देखीं, वे तो किसी भी सभ्रांत परिवार के वयस्कों के लिए भी शोभनीय नहीं थीं। मुझे पहली बार अंतरताने की इतनी बड़ी नकारात्मकता का अहसास हुआ। ऐसा ही अनुभव अनेक अन्य बच्चों के बारे में उनके माता-पिता से पता चला। मैंने तुरंत बच्चों को अपने विश्वास में लेते हुए समस्या का समाधान किया। अपेक्षित लोगों का सहयोग भी लिया।

परन्तु एक प्रश्न मन में आया कि ऐसी कितनी मां हैं जो पूरी तरह से समस्या का समाधान कर पाती हैं। हमारी माताओं का अर्धज्ञान बच्चों को सही दिशा में ले जाने में कितना सक्षम है। इसमें माँओं की कुशलता पर मुझे कोई संदेह नहीं। परंतु हमारी अधिकांश आधुनिक माँएं सोचती हैं कि अभी वह छोटा है, अभी उस पर नज़र रखने की आवश्यकता नहीं। कभी-कभी तो माता-पिता उनकी उपस्थिति में अपने पति-पत्नि के व्यवहार में खुलेपन के हामी होते हैं, और उनका वह खुला व्यवहार बच्चे के अविकसित मस्तिष्क में उम्र से पूर्व ही प्रश्नों के रूप में हमारे सामने आता है तो हम फिर उसे टालते जाते हैं। अब बच्चा अपनी उत्सुकता गलत तरीके से शांत करता है। बड़ा होकर मनमानी करता है तो उसको टोकने का उस पर कोई असर नहीं होता, क्योंकि उसे इस टोकाटाकी या हमारी कड़ी नज़र की आदत नहीं होती। और हम माथा पीट कर बोलते हैं कि बच्चा हमारी सुनता ही नहीं।

हम इसे सामाजिक समस्या के रूप में ले सकते हैं। परंतु यह केवल एक परिवार या समाज की समस्या नहीं, देश की पूरी व्यवस्था को प्रभावित करती हुई समस्या है। बच्चों का चारित्रिक विकास हमारे लिए एक सबसे बड़ी चुनौती है जिसे आज हमने ताक पर रख दिया है। हम महिलाएँ आज बहुत उन्नति कर चुकी हैं। विकास के क्षेत्र में उन्हें किन्हीं बाधाओं का सामना न करना पड़े। परंतु कहीं यही उन्नति हमारी प्राचीन संस्कृति के लिए घातक न बन जाए, इस बात का चिंतन इस पढ़ी-लिखी, सभ्य महिलाओं को करना ही होगा। आखिर नई पीढ़ी की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को हम नकार तो नहीं सकते। आइये, हम सभी महिलाएँ अपने पूर्ण शिक्षित होने का वास्तविक परिचय दें।

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