सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या-
मनुष्याणां हिंसावृत्तिस्तु निरवधिः। पशुहत्या तु तेषाम् आक्रीडनम्। केवलं विक्लान्तचित्तविनोदाय
महारण्यम् उपगम्य ते यथेच्छं निर्दयं च पशुघातं कुर्वन्ति। तेषां पशुप्रहार-व्यापारमालोक्य जडानामपि
अस्माकं विदीर्यते हृदयम्।
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प्रसंग-> प्रस्तुत गद्यांश हमारी संस्कृत की पाठ्यपुस्तक ....... के ........ नामक पाठ से लिया गया है । प्रस्तुत गद्यांश में वृक्षों की सभा के सभापति पीपल ने मनुष्य की हिंसक प्रवृत्ति के प्रति तीखा व्यंग्य प्रहार किया है।
व्याख्या-> हिंसा के दो प्रमुख रूप हैं -स्वाभाविक भूख की शांति के लिए हिंसा, मन बहलाने के लिए हिंसा। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है। परंतु सिंह व्याघ्र आदि पशुओं का स्वाभाविक भोजन मांस ही है। अतः ऐसी पशुओं को ना चाहते हुए भी केवल पेट की भूख शांत करने हेतु पशु वध करना पड़ता है| परंतु इन पशुओं की यह विशेषता भी है कि भूख शांत होने पर पास खड़े हुए हिरन आदि का भी यह वध नहीं करते| पशुओं का पशु वध भूख शांति तक ही सीमित होता है परंतु मनुष्य की पशु हिंसा असीम है क्योंकि वह तो अपनी बेचैन मन की प्रसन्नता के लिए ही पशु वध करता है| मनुष्य की यह विलक्षण एवं भयावह हिंसावृत्ति पर वृक्षों की सभा के सभापति पीपल को अत्यंत खेद है और जड़ होने पर भी मनुष्य के इस दुष्कर्म से उसका हृदय फटा जा रहा है।