Art, asked by staradv910, 4 months ago

सरिकन सकति मिल
विरासत और
मौतहार पर साजन​

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Answered by Anonymous
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Answer:

हम राज्य लिए मरते हैं!

सच्चा राज्य परन्तु हमारे कर्षक ही करते हैं।

जिनके खेतों में हैं अन्न,

कौन अधिक उनसे सम्पन्न?

पत्नी-सहित विचरते हैं वे, भव-वैभव भरते हैं,

हम राज्य लिए मरते हैं!

वे गो-धन के धनी उदार,

उनको सुलभ सुधा की धार,

सहनशीलता के आगर वे श्रम-सागर तरते हैं।

हम राज्य लिए मरते हैं!

यदि वे करें, उचित है गर्व,

बात बात में उत्सव-पर्व,

हम-से प्रहरी-रक्षक जिनके, वे किससे डरते हैं?

हम राज्य लिए मरते हैं!

करके मीन-मेख सब ओर,

किया करें बुध वाद कठोर,

शाखामयी बुद्धि तज कर वे मूल-धर्म धरते हैं।

हम राज्य लिए मरते हैं!

होते कहीं वही हम लोग,

कौन भोगता फिर ये भोग?

उन्हीं अन्नदाताओं के सुख आज दुःख हरते हैं!

हम राज्य लिए मरते हैं!

प्रभु को निष्कासन मिला, मुझको कारागार,

मृत्यु-दण्ड उन तात को, राज्य, तुझे धिक्कार!

चौदह चक्कर खायगी जब यह भूमि अभंग,

घूमेंगे इस ओर तब प्रियतम प्रभु के संग।

प्रियतम प्रभु के संग आयँगे तब हे सजनी,

अब दिन पर दिन गिनो और रजनी पर रजनी!

पर पल पल ले रहा यहाँ प्राणों से टक्कर,

कलह-मूल यह भूमि लगावे चौदह चक्कर!

सिकुड़ा सिकुड़ा दिन था, सभीत-सा शीत के कसाले से,

सजनी, यह रजनी तो जम बैठी विषम पाले से!

आये सखि, द्वार-पटी हाथ से हटा के प्रिय

वंचक भी वंचित-से कम्पित विनोद में,

’ओढ़ देखो तनिक तुम्हीं तो परिधान यह’

बोले डाल रोमपट मेरी इस गोद में।

क्या हुआ, उठी मैं झट प्रावरण छोड़ कर

परिणत हो रहा था पवन प्रतोद में,

हर्षित थे तो भी रोम रोम हम दम्पति के,

कर्षित थे दोनों बाहु-बन्धन के मोद में।

करती है तू शिशिर का बार बार उल्लेख,

पर सखि, मैं जल-सी रही, धुवाँधार यह देख!

सचमुच यह नीहार तो अब तू तनिक विहार,

अन्धकार भी शीत से श्वेत हुआ इस बार!

कभी गमकता था जहाँ कस्तूरी का गन्ध;

चौंक चमकता है वहाँ आज मनोमृग अन्ध!

शिशिर, न फिर गिरि-वन में,

जितना माँगे, पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में,

कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में।

सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में?

वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस-भाजन में,

तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में।

हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं,-अपने इस जीवन में,

तो उत्कंठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में।

सखि, न हटा मकड़ी को, आई है वह सहानुभूति-वशा,

जालगता मैं भी तो, हम दोनों की यहाँ समान-दशा।

भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?

झाँक झरोखे से न, लौट जा, गूँजें तुझसे तार जहाँ।

मेरी वीणा गीली गीली;

आज हो रही ढीली ढीली;

लाल हरी तू पीली नीली,

कोई राग न रंग यहाँ।

भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?

शीत काल है और सबेरा;

उछल रहा है मानस मेरा;

भरे न छींटों से तनु तेरा,

रुदन जहाँ क्या गान वहाँ?

भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?

मेरी दशा हुई कुछ ऐसी

तारों पर अँगुली की जैसी,

मींड़, परन्तु कसक भी कैसी?

कह सकती हूँ नहीं न हाँ।

भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?

न तो अगति ही है न गति, आज किसी भी ओर,

इस जीवन के झाड़ में रही एक झकझोर!

पाऊँ मैं तुम्हें आज, तुम मुझको पाओ,

ले लूँ अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।

फूल और फल-निमित्त,

बलि देकर स्वरस-वित्त,

लेकर निश्चिन्त चित्त,

उड़ न हाय! जाओ,

लूँ मैं अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।

तुम हो नीरस शरीर,

मुझ में है नयन-नीर;

इसका उपयोग वीर,

मुझको बतलाओ।

लूँ मैं अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।

जो प्राप्ति हो फूल तथा फलों की,

मधूक, चिन्ता न करो दलों की।

हो लाभ पूरा पर हानि थोड़ी,

हुआ करे तो वह भी निगोड़ी।

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