सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥
शब्दार्थ : सर्वम्-सारा। परवशम्-दूसरों के वश में (परतन्त्रता में)। आत्मवशम्-अपने वश में (स्वतन्त्रता में)। एतत्-यह। विद्यात्-जानना चाहिए। समासेन-संक्षेप से। सुखदुःखयोः-सुख-दुःख का।
सरलार्थ:-दूसरों के वेश में सारा दु:ख होता है और अपने वश में सब कुछ सुख होता है। इसे ही संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिए।
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सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।।
अर्थ : हमारा दुख दूसरों के हाथ में है, जो दूसरों के वश में रहता है। हमारा सुख तो हमारे हाथ में है, जो हमारे वश में रहता है। यही सुख और दुख का सही लक्षण और सार है।
व्याख्या : हमें जो भी दुःख प्राप्त होता है, वह हमारे हाथ में नही, वह हमारे बश में नहीं होता। वह में दूसरों के कारण ही प्राप्त होता है, लेकिन यदि हम सुख प्राप्त कर सकते हैं तो वह हमारे खुद के प्रयासों से ही प्राप्त हो सकता है। सुख को प्राप्त करना हमारे हाथ में है। दुख को प्राप्त करना, दुख मिलना हमारे हाथ में नहीं। सुख को प्राप्त हमारे हाथ में है, वह हमें दूसरों के कारण नही मिलता बल्कि स्वयं के कारण ही मिलता है। सुख-दुख के इसी लक्षण को समझ कर हमें सुख-दुख को समान भाव से ग्रहण करना चाहिए।
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