सरहुल मे नाचने-गाने के दौरान कोन-कोन से वाद्रय
यंत्र प्रयोग मे जाते हे?
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सरहुल... एक दिन का जश्न नहीं, साल भर की खुशियों की शुरुआत है
3 वर्ष पहले
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रांची. सरहुल में प्रचलित है- नाची से बांची। यानी जो नाचेगा वही बचेगा। क्योंकि, मान्यता है कि नृत्य ही संस्कृति है। इसमें पूरे झारखंड में जगह-जगह नृत्य उत्सव होता है। महिलाएं लाल पाढ़ साड़ी पहनती हैंं। ऐसा इसलिए क्योंकि सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है। वहीं, लाल संघर्ष का। सफेद सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरुबोंगा का प्रतीक है। इसलिए सरना झंडा भी लाल और सफेद ही होता है।
सरहुल पूरे देश में...लेकिन झारखंड के 5 समुदाय इसे अलग-अलग तरह से मनाते हैं
सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग...यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत-संगीत है। यही झारखंड का जीवन है। हाड़तोड़ मेहनत के बाद रात में पूरा गांव अखड़ा में साथ-साथ नाचता-गाता है। ऐसे में बसंत में सरहुल को खुशियां का पैगाम माना जाता है। क्योंकि, इस समय प्रकृति यौवन पर होती है। फसल से घर और फल-फूल से जंगल भरा रहता है। मानते हैं प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देगी।
सरहुल दो शब्दों से बना है। सर और हूल। सर मतलब सरई या सखुआ फूल। हूल यानी क्रांति। इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया। मुंडारी, संथाली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’, नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इस पर्व को ‘सरहुल’ कहा जाता है।
मुंडारी : बहा पोरोब में पूर्वजों का होता है सम्मान
मुंडा समाज में बहा पोरोब का विशेष महत्व है। मुंडा प्रकृति के पुजारी हैं। सखुआ साल या सरजोम वृक्ष के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मंुडा समाज का पूजा स्थल सरना होता है। सभी धार्मिक नेग विधि इसी सरना स्थल पर पाहन द्वारा संपन्न किया जाता है। जब सखुआ की डालियों पर सखुआ फूल भर जाते हैं, तब गांव के लोग एक निर्धारित तिथि पर बहा पोरोब मनाते हैं। बहा पोरोब के पूर्व से पाहन (पहंड़) उपवास रखता है। यह पर्व विशेष तौर पर पूर्वजों के सम्मान में मनाते हैं। धार्मिक विधि के अनुसार सबसे पहले सिंगबोगा परम परमेश्वर को फिर पूर्वजों और ग्राम देवता की पूजा की जाती है। पूजा की समाप्ति पर पाहन को नाचते-गाते उसके घर तक लाया जाता है। सभी सरहुल गीत गाते हुए नाचते-गाते हैं।
एक्सपर्ट : वाल्टर भेंगरा, साहित्यकार, शिक्षाविद्, खूंटी, बीरेंद्र सोय, मुंडारी शोधार्थी
हो समुदाय : तीन दिनों तक बा पोरोब मनता है
‘बा’ का शाब्दिक अर्थ है फूल अर्थात फूलों के त्योहार को ही ‘बा’ पोरोब कहते हैं। बा पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। सर्वप्रथम ‘बा: गुरि’, दूसरे दिन ‘मरंग पोरोब’ और अंत में ‘बा बसि’। बा गुरि के दिन नए घड़े में भोजन तैयार होता है। घर का मुखिया रसोई घर में मृत अात्माओं, पूर्वजों एवं ग्राम देवता को तैयार भोजन, पानी, हड़िया अर्पित कर घर-गांव की सुख-समृद्धि की कामना सिंगबोंगा (ईश्वर) से करते हैं। दूसरे दिन जंगल जाकर साल की डालियां फूल सहित काटकर लाते हैं और पूजा के बाद आंगन-चौखट अादि में प्रतीक स्वरूप खोंसते हैं। तीसरे दिन बा बसि में सभी पूजन सामग्रियों को विसर्जित किया जाता है। रात में पुन: नाच-गान अारंभ होता है।
Answer:
स्त्री पुरुष दोनों ही ढोल-मंजीरे लेकर रातभर नाचते-गाते हैं।