सरकार द्वारा चलाए गए निर्धनता-निरोधी कार्यक्रम ज्यादा कारगर साबित क्यों नहीं हो रहा है ?
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निर्धनता एक विश्वव्यापी समस्या है यद्यपि विकासशील देशों में निर्धनता अधिक गम्भीर समस्या है लेकिन विकसित देशों में भी निर्धनता है। न्यूयार्क विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र प्राध्यापक सुश्री एडवर्ड वुल्फ के अनुसार विकसित देशों की दृष्टि से सम्पत्ति और आय की असमानताएँ संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वाधिक हैं जहाँ 1995 में सर्वाधिक धनी 20 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 55,000 डाॅलर और सर्वाधिक निर्धन 20 प्रतिशत जनसंख्या की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 5000 डॉलर थी। वर्ष 1991 में संयुक्त राज्य अमेरिका में 3 करोड़ 57 लाख व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे थे और 10 प्रतिशत जनसंख्या से अधिक आबादी आज गरीबी रेखा से नीचे है।
भारत में स्वाधीनता के बाद से ही निर्धनता गम्भीर समस्या बनी हुई है क्योंकि इनकी संख्या निरन्तर बढ़ रही है। योजना आयोग के विशेषज्ञ दल के अनुसार 1994-95 में देश की 39.6 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। यह एक विडम्बना है कि स्वाधीनता के समय की भारत की जनसंख्या से अधिक आबादी आज गरीबी रेखा से नीचे है।
शासकीय उपाय
नियोजित आर्थिक विकास के प्रारम्भिक वर्षों में गरीबी निवारण की कोई पृथक नीति लागू नहीं की गई क्योंकि सरकार और योजना आयोग का दृष्टिकोण था कि विकास-दर में वृद्धि के लाभ रिसकर अन्ततः गरीबों तक पहुँच जाएँगे और गरीबी खत्म हो जायेगी। छठी पंचवर्षीय योजना के प्रारूप में यह स्पष्ट स्वीकार किया गया कि देश में गरीबी का विस्तार बहुत अधिक था अर्थात विकास के प्रतिफल रिसाव-सिद्धान्त के अनुरूप गरीबों तक नहीं पहुँचे। इसलिये आठवें दशक में निर्धनता निवारण हेतु ग्रामीण विकास और रोजगार के अनेक विशिष्ट कार्यक्रम लागू किये गये। इनमें समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम और जवाहर रोजगार योजना प्रमुख हैं। इन कार्यक्रमों पर योजनागत व्यय में निरन्तर वृद्धि के बावजूद गरीबों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है। ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मन्त्रालय के अनुसार ग्रामीण निर्धनता एवं बेरोजगारी उन्मूलन की लगभग 18 परियोजनाएँ लागू होने के बावजूद 1996 में 21 करोड़ ग्रामीण गरीबी रेखा से नीचे थे।
यह कहना गलत न होगा कि अपार धनराशि से चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाएँ निर्धनता निवारण में लगभग असफल रही हैं। परियोजनाओं का दोषपूर्ण निर्माण और क्रियान्वयन बढ़ता प्रशासनिक व्यय, गलत हितग्राहियों का चयन, सामाजिक जागरुकता, का अभाव और भ्रष्टाचार इन कार्यक्रमों की असफलता के प्रमुख कारण रहे हैं। शासकीय स्तर पर इन परियोजनाओं की असफलता को स्वीकार करते हुये भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्वर्गीय राजीव गाँधी ने झुंझनु, राजस्थान के ग्राम अराभट्ट में आयोजित आमसभा में कहा था कि गरीबों के कल्याण पर व्यय किये जाने वाले 100 रुपये में से केवल 15 रुपये ही गरीबों तक पहुँचते हैं और शेष राशि प्रशासनिक व्यय, मध्यस्थों की दलाली और सामाजिक शोषण को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था पर व्यय हो जाती है। उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि पंचायती राज की स्थापना इन दोषों को समाप्त करने में सफल होगी।
यह खेदजनक है कि पंचायती राज इन दोषों को समाप्त करने में असफल रहा है क्योंकि न केवल पंचायतों के वित्तीय संसाधन कम हैं बल्कि निर्धनता परियोजनाओं के निर्माण की तकनीकी विशेषज्ञता भी उनके पास नहीं है। इतना ही नहीं, पंचायतों पर धनी किसानों का नियन्त्रण है जो सामाजिक असमानताओं को प्रोत्साहित करते हैं। पंचायतें भी भ्रष्टाचार की बुराई से मुक्त नहीं हैं। स्वर्गीय राजीव गाँधी के निष्कर्षों की पुष्टि कर्नाटक में 1996 में आर्थिक एवं सांख्यिकी संचालनालय, बंगलौर द्वारा किये गये एक अध्ययन से भी होती है जिसमें कहा गया था कि सामाजिक कल्याण पर व्यय किये गये प्रत्येक रुपये में से केवल 13 पैसे ही सामान्य जन (निर्धन) तक पहुँच पाते हैं।