Sarojni nadu ka yogdan kya tha
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सरोजिनी नायडू (१३ फरवरी १८७९ - २ मार्च १९४९) का जन्म भारत के हैदराबाद नगर में हुआ था। इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान तथा माँ कवयित्री थीं और बांग्ला में लिखती थीं। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने १२ वर्ष की अल्पायु में ही १२हवीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की और १३ वर्ष की आयु में लेडी ऑफ दी लेक नामक कविता रची। सर्जरी में क्लोरोफॉर्म की प्रभावकारिता साबित करने के लिए हैदराबाद के निज़ाम द्वारा प्रदान किए गए दान से "सरोजिनी नायडू" को इंग्लैंड भेजा गया था सरोजिनी नायडू को पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और बाद में कैम्ब्रिज के गिरटन कॉलेज में अध्ययन करने का मौका मिला।[1]
महात्मा गांधी के साथ सरोजिनी नायडू
वे १८९५ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
१८९८ में सरोजिनी नायडू, डॉ॰ गोविंदराजुलू नायडू की जीवन-संगिनी बनीं। १९१४ में इंग्लैंड में वे पहली बार गाँधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भाँति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र (सत्याग्रह हो या संगठन की बात) में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गयीं। संकटों से न घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर ये देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती रहीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को झकझोर देते थे और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे। वे बहुभाषाविद थी और क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेजी, हिंदी, बंगला या गुजराती में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेजी में बोलकर इन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।[2]
अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण १९२५ में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की वे अध्यक्षा बनीं और १९३२ में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद वे उत्तरप्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र और गाँधीजी की इस प्रिय शिष्या ने अपना सारा जीवन देश के लिए अर्पण कर दिया। २ मार्च १९४९ को उनका देहांत हुआ। १३ फरवरी १९६४ को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में १५ नए पैसे का एक डाकटिकट भी जारी किया।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सरोजिनी नायडू का जन्म हैदराबाद में हुआ। उन्होंने घर पर ही अंगरेजी का अध्ययन किया और बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक पास की। वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सकीं, परंतु अंगरेजी भाषा में काव्य सृजन में वे प्रतिभावान रहीं। गीतिकाव्य की शैली में नायडू ने काव्य सृजन किया और 1905, 1912 और 1917 में उनकी कविताएं प्रकाशित हुईं।
नायडू के राजनीति में सक्रिय होने में गोखले के 1906 के कोलकाता अधिवेशन के भाषण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1903 से 1917 के बीच वे टैगोर, गांधी, नेहरू व अन्य नायकों से भी मिलीं। ऐनी बेसेंट और अय्यर के साथ युवाओं में राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण करने हेतु उन्होंने 1915 से 18 तक भारत भ्रमण किया। 1919 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में वे गांधीजी की विश्वसनीय सहायक थीं।
होम रूल के मुद्दे को लेकर वे 1919 में इंग्लैंड गईं। 1922 में उन्होंने खादी पहनने का व्रत लिया। 1922 से 26 तक वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के समर्थन में आंदोलनरत रहीं और गांधीजी के प्रतिनिधि के रूप में 1928 में अमेरिका गईं।
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सरोजिनी नायडू ने गांधीजी के अनेक सत्याग्रहों में भाग लिया और 'भारत छोड़ो' आंदोलन में जेल भी गईं। नायडू ने 1925 में कानपुर कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता की। वे उत्तरप्रदेश की गवर्नर बनने वाली पहली महिला थीं। वे 'भारत कोकिला' के नाम से जानी गईं।
नायडू के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण के समय कहा था - 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को (सभी को) जो उसकी परिधि में आते हों, एक आदेश देना चाहिए कि केंद्रीय और प्रांतीय विधानसभाओं में वे अपनी सीटें खाली करें और कैलाश से कन्याकुमारी तक, सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक एक गतिशील और अथक अभियान का श्रीगणेश करें।'
' चुनाव के बाद जब तुम्हारा भव्य अभिनंदन किया जा रहा था, तो तुम्हारे चेहरे को देखते-देखते मुझे लगा, मानो मैं एक साथ ही राजतिलक और सूली का दृश्य देख रही हूं। वास्तव में कुछ परिस्थितियों और कुछ अवस्थाओं में ये दोनों एक-दूसरे से अभिन्न हैं और लगभग पर्यायवाची हैं।'
- नायडू द्वारा पं. नेहरू को 29 सितंबर, 1929 को लिखे गए पत्र से।
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