सस्कृतस्य साहित्य सस
चरित्र निभाणार्थ यादृशी सत्प्रेरणा संस्कृतवाडमय ददाति न तादृशी किजिचदन्यत।
महामना विद्वान वक्ता धार्मिको नेता पटु पत्रकारश्च आसीत। परमस्य सवोच्चगुण जनसेवैव आसीत। यत्र कुत्रापि अयम जनान दुखितान
पीडयमानाश्चापश्यत तत्रैव स शीघ मेव उपस्थित सर्वविध साहायाच अकरोत। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासीत।
हिन्दी में अनवाद कीजिए।
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महामना मदन मोहन मालवीय (25 दिसम्बर 1861 - 12 नवंबर 1946) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता तो थे ही इस युग के आदर्श पुरुष भी थे। वे भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे। इन समस्त आचरणों पर वे केवल उपदेश ही नहीं दिया करते थे अपितु स्वयं उनका पालन भी किया करते थे। वे अपने व्यवहार में सदैव मृदुभाषी रहे।
कर्म ही उनका जीवन था। अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी अपनी विधि व्यवस्था का सुचारु सम्पादन करते हुए उन्होंने कभी भी रोष अथवा कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया।
भारत सरकार ने २४ दिसम्बर २०१५ को उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया।[1]