Sat sangati se kya labh hai
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सत्संगति से तात्पर्य है सज्जनों की संगति में रहना , उनके गुणों को अपनाना तथा उनके अच्छे विचारों को अपने जीवन में उतारना | सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को किसी-न- किसी का संग अवश्य चाहिए | यह संगति जो वह पाता है अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी | यदि उसकी संगति अच्छी है तो उसका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है और यदि यह संगति बुरी हुई तो उसका जीवन नरक के समान बन जाता है |
संगति का मनुष्य के जीवन पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है | वह जैसी संगति में रहता है उस पर उसका वैसा ही प्रभाव पड़ता है | एक ही स्वाति बूंद केले के गर्भ में पड़कर कपूर बनती है, सीप में पड़ जाती है तो मोती बन जाती है और यदि साँप के मुँह में पड़ जाती है तो विष बन जाती है | इसी प्रकार पारस के छूने से लोहा सोने में बदल जाता है | फूलो की संगति में रहने से कीड़ा भी देवताओं के मस्तक पर चढ़ जाता है |
महर्षि बाल्मीकि रत्नाकर नामक ब्राह्मण थे | किन्तु भीलो की संगति में रहकर डाकू बन गये | परन्तु बाद में व्ही डाकू देवर्षि नारद की संगति में आने से तपस्वी बनकर महर्षि बाल्मीकि से नाम से प्रसिद्ध हुई | ऐसे ही अंगुलिमाल नामक भयंकर डाकू भगवान बुद्ध की संगति पाकर महात्मा बन गया | गन्दे जल का नाला भी पवित्र-पावनी भागीरथी में मिलकर गंगा जल बन जाता है | अच्छे व्यक्ति की संगति का फल अच्छा ही होता है | किसी कवि ने ठीक ही कहा है – जैसी संगति बैठिए, तैसो ही फल दीन’ |
जो व्यक्ति जीवन में ऊचा उठना चाहता है उसे समाज में अच्छे लोगो से सम्पर्क स्थापित करना चाहिए क्योकि मनुष्य के मन पर इसका प्रभाव शीघ्र ही होता है | मानव मन तथा जल एक से ही स्वभाव के होते है | जब ये दोनों गिरते है तो शीघ्रता से गिरते है परन्तु इन्हें ऊपर उठने में बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है | कुसंगति में पड़ने वाले व्यक्ति का समाज में बिल्कुल आदर नही होता | वह जीवन में गिरता ही चला जाता है | अंत : प्रत्येक व्यक्ति को कुसंगति से दूर रहना चाहिए | तथा उत्तम लोगो से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए |
बुद्धिमान व्यक्ति सदैव सज्जनों के सम्पर्क में रहते है तथा अपने जीवन को भी वैसा ही बनाने का प्रयत्न करते है | उन्हें सत्संगति की पतवार से अपने जीवन रूपी नौका को भवसागर से पार लगाने का प्रयत्न करना चाहिए | सत्संगति से ही वह ऊचे-से -ऊचे सकता है और समाज में सम्मान भी प्राप्त कर सकता है |
ANSWER
HOPE IT HELPS!
परम पूज्यश्री महाराजश्री कहते हैं कि सत्संगति का संस्कार कभी मिटता नहीं वह अमिट रहता है ।
एक बार राजा रघु के पास एक जंगली जीव भागता भागता आया और शरण की बुहार लगाई । राजा रघु उस समय जंगल में विरक्त हो तपस्या कर रहे थे । उन्होंने उस जीव को शरण दी।
तभी भागते भागते एक राक्षस आया और बोला – महाराज ! वह मेरे भोजन है ! उसे आप मुझे लौटा दीजिए ।
राजा बोले कि उसने मेरी शरण ली है। मैं कैसे तुम्हें दे दूँ ।
राक्षस बोला – राजन् अब आप विरक्त हैं। आप समदर्शी हैं । आप भेद भाव नहीं कर सकते। जितना आपको वह प्रिय है उतना मैं भी !
राजा रघु चुप !
पूज्य महाराजश्री बोले कि संतों महात्माओं के आगे ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं। ऐसे ऐसे तर्क सुनने को मिलते हैं ।
तो राजा रघु को अपने गुरू महर्षि विशिष्ट जी का स्मरण हो आया ! वे सब कुछ छोड़ कर सिमरन करने बैठ गए । पास ही राक्षस व जीव भी बैठे थे ।
कुछ समय पश्चात जब उन्होंने आँखें खोली तो देखा कि राक्षस का रूप ही बदल गया था । वह बोला – महाराज! मैं श्रापित था । आपके सिमरन से मेरी योनि ही बदल गई ! मैं अब राक्षस न रहा महाराज !
संतों की संगति पूज्य़श्री महाराजश्री ने कहा कि वह आपको भी वही ज़ुकाम लगा देती है जो उन्हें लगा होता हैं।
संत तो ऐसे होते हैं कि कुछ न भी अपना दिया हो फिर भी अपना रंग चढा देते हैं !
संत तो ऐसे होते हैं कि आत्माओं को पता भी नहीं चलता कि वे संतों के मध्य हैं और रूपान्तरण होने आरम्भ हो जाते हैं ।
संतों के लिए अपने आपको दिखाने व अपनी प्रदर्शनी करने की आवश्यकता नहीं होती न ही शारीरिक उपस्थिति की … वे तो कहीं से भी दूर दूर अपनी दिव्य तरंगें विस्तृत कर मानव योनि का कल्याण करते रहते हैं !! उनमें तो यह भेद भाव भी नहीं रहता कि कौन उन्हें शारीरिक रूप में पसंद करता है कौन नहीं … वे बस बाँटते जाते हैं !!!
ऐसे जीवन्मुक्त ब्रह्मलीन संतों के श्रीचरणों में बारम्बार प्रणाम