Sociology, asked by kpavitra582, 5 months ago


सत्य or असत्य
वाघिणीच्या आश्वासक आवाजाने पिल्ले घाबरली -
..वाघीणीची चार पिल्ले होती -

Answers

Answered by hasteepatel5
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Answer:

Explanation:

सभ्यता के बारे में यह जाना-माना सच है कि दर्शन, अध्यात्म, धर्म, विज्ञान, कला, साहित्य, अध्ययन-मनन के अन्य विविध शास्त्र, स्वतंत्र अध्ययन-मनन आदि में गहरे डूबा व्यक्ति हमेशा कम बातें करता है। गांधी की अवधारणा लें तो राजनीति के बारे में भी यह सच माना जा सकता है। (भारत का स्वतंत्रता आंदोलन इस मायने में भी शानदार था कि उसके विविध धाराओं में सक्रिय नेतृत्व ने हमेशा तौल कर बोलने का विवेक कायम रखा और बहस का एक स्तर एवं मर्यादा बनाए रखी) इसके साथ जिस व्यक्ति का गहरा जीवनानुभव होता है, भले ही वह पारंगत विद्वान न हो, कम से कम बातें करने वाला होता है। कोई भी विषय अथवा संदर्भ हो, बात में सार और ईमानदारी होना जरूरी माना गया है। कह सकते हैं सार और ईमानदारी बात की आत्मा होते हैं। तभी भाषा में बात से ज्यादा अर्थ-व्यंजक शब्द शायद ही दूसरा कोई हो।

हालांकि, सभ्यता का सच यह भी है कि दुनिया में हर दौर में ज़बानी जमा-खर्च करने वालों की कमी नहीं रही है। बातें बनाना, बातें छौंकना, बातें चटकाना, बातों की खाना, बातों के बताशे फोड़ना, बातों से पेट भरना, बातों के पुल बनाना जैसी अनेक अभिव्यक्तियां इस तथ्य की पुष्टि करती हैं। ऐसे लोगों को नागर भाषा में वाचाल, लबार आदि और देहाती भाषा में बक्कू, बकवादी, बतोलेबाज़, बात फरोश, गप्पी, गड़ंकी,  गपोड़ी, लफ्फाज़, हांकने वाले, फेंकने वाले आदि कहा जाता है। इनके बारे में नागर और देहाती दोनों समाजों में कतिपय अश्लील अभिव्यक्तियां भी प्रचलित हैं। हर मामले में टांग अड़ाने की आदत के बावजूद, ऐसे लोगों को बात-चीत में गंभीरता से नहीं लिया जाता। सभ्यता ने अपने बचाव में यह पेशबंदी की हुई है।

ज़बानी जमा-खर्च करने वाले लोगों में कोई कुदरती कमी नहीं होती। उनकी कमजोरी इंसानी ही होती है। विभिन्न (मल्टीप्ल) सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारणों के चलते ऐसे लोग खोखलेपन को ही सद्गुण (वर्च्यू) मान लेते हैं। आचार्य नरेंद्र देव ने संस्कृति को चित्त की खेती कहा है। चित्त की समुचित और सतत निराई-डसाई होती है, तो वह हरा-भरा रहता है। यानी संस्कृति फलती-फूलती है। ज़बानी जमा-खर्च करने वाले लोगों का समस्त जीवन-रस (इसेंस ऑफ़ लाइफ) जबान की प्यास बुझाने में ही खप जाता है, और चित्त की खेती सूखी रह जाती है। चित्त से असंबद्ध ज़बान कुछ भी बोलने के लिए हमेशा लपलपाती रहती है।

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