सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति ।हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।।बलिहारी गुरु आपकी, घरी घरी सौ बार ।मानुष तैं देवता किया, करत न लागी बार ।।२।। iska bhavarth
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सतगुरु सवाँ न को सगा, सोधी सईं न दाति ।
हरिजी सवाँ न को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।१।।
श्लोक में कबीर जी समझाना चाहते है कि , सतगुरु के समान कोई हमारा अपना और सगा नहीं होता है | सतगुरु के समान दूसरा कोई दान नहीं कर सकता है | हरी के समान कोई उपकार नहीं कर सकता | सतगुरु के सेवक के समान कोई जाति नहीं है |
बलिहारी गुरु आपकी, घरी घरी सौ बार ।
मानुष तैं देवता किया, करत न लागी बार ।।२।।
इस श्लोक में कबीर जी समझना चाहते है कि मैंने अपने गुरु पर अपने हर क्षण को सैंकड़ों बार न्यौछावर करना चाहता हूँ , जिन्होंने मुझे बिना देरी के मनुष्य से देवता बना दिया है |
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