satark bharat samridh bharat essay
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‘मैं गन्दगी को दूर करके भारत माता की सेवा करुँगा। मैं शपथ लेता हूँ कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूँगा और उसके लिये समय दूँगा। हर वर्ष सौ घंटे यानी हर सप्ताह दो घंटे श्रमदान करके स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करुँगा। मैं न गन्दगी करुँगा, न किसी और को करने दूँगा। सबसे पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गाँव से और मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करुँगा। मैं यह मानता हूँ कि दुनिया के जो भी देश स्वच्छ दिखते हैं उसका कारण यह है कि वहाँ के नागरिक गन्दगी नहीं करते और न ही होने देते हैं। इस विचार के साथ मैं गाँव-गाँव और गली-गली स्वच्छ भारत मिशन का प्रचार करुँगा। मैं आज जो शपथ ले रहा हूँ वह अन्य सौ व्यक्तियों से भी करवाऊँगा, ताकि वे भी मेरी तरह सफाई के लिये सौ घंटे प्रयास करें। मुझे मालूम है कि सफाई की तरफ बढ़ाया गया एक कदम पूरे भारत को स्वच्छ बनाने में मदद करेगा। जय हिन्द।’’
यह शपथ डेढ़ साल पहले दो अक्तूबर को पूरे देश में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूँजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक साल में देश इतना स्वच्छ होगा कि हामरे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याओं के निदान पर होगा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते हैं। लेकिन जब व्यावहारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहाँ गन्दगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।
आखिर हमें कूड़ा किस तरह से निजी तौर पर नुकसान पहुँचा रहा है और गन्दगी के निवारण से हम अपने जीवन को किस तरह सहज व शान्त बना सकते हैं, इन्ही विकल्पों पर विमर्श करती है पंकज कुमार सिंह की पुस्तक - ‘‘स्वच्छ भारत, समृद्ध भारत’’। लेखक पर्यावरण व स्वच्छता के मसलों पर बीते बीस सालों से सतत लेखन कर रहे हैं। श्री सिंह अपनी पुस्तक में कहते हैं कि दुनिया भर में जो भी देश अपनी स्वच्छता और सुन्दरता के लिये मशहूर हैं, उसका मूल कारण वहाँ के आम लोगों का नागरिक बोध या सिविक सेंस है। वहाँ के निवासी साफ-सफाई के पीछे निरन्तर अनुशासित और सक्रिय बने रहते हैं। अधिकांश देशों में बच्चे को छोटी उम्र से ही इस नागरिक बोध का पाठ पढ़ाया जाता है, जबकि हमारे देश में हम सफाई को एक सरकारी मुद्दा मानकर खुद ही गन्दगी फैलाते हैं। इसी लिये ‘स्वच्छ भारत की तैयारी, जन-जन की भागीदारी’ का नारा बुलन्द करना जरूरी है।
भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है । सन 1999 में भी सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चलाया गया था लेकिन लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी का जीवन गन्दगी के बीच ही गुजर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी (राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत) खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है।
भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहाँ सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों से साल-दर-साल कूड़े का ढेर बढ़ता जा रहा है जबकि उसके निस्पादन के प्रयास बेहद कम हैं। हर नगर कूड़े के ढलाव से पट रहा है और उससे बदबू, भूजल प्रदूषण, जमीन का नुकसान जैसे ; कभी ठीक ना होने वाले विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।
यह पुस्तक कुल 12 अध्यायों में है और प्रत्येक अध्याय में तथ्य व आँकड़ों के साथ समस्या के निदान के बेहद सहज तरीके सुझाए गए हैं। पहला अध्याय ‘‘स्वच्छ भारतः समृद्ध भारत’’ में महर्षि पतंजलि की उस उक्ति को रेखांकित किया गया है जिसमें कहा गया है - ‘‘षौचात स्वांग जुगुप्सा परैः असंसर्गः’’। बताया गया है कि किस तरह भारत के पर्व-त्योहर, लोक रंग, सामाजिक जीवन समाज व निजी स्वच्छता के चारों ओर घूमता है और हमने आधुनिकता के नाम पर अपनी परम्परा को ही तिलांजलि दे दी हैै। अगले अध्याय में केवल एक घंटे प्रतिदिन काम करने से कैसे देश दुनिया के सामने मिसाल बन सकता है, इसका गणित बताते हुए लेखक ने कहा है कि बन्द करो बहाना, कुछ करके दिखाना। तीसरे अध्याय में कूड़ा निस्तारण के विकल्पों और हम निजी तौर पर कूड़ा कैसे कम करें, इस पर सुझाव हैं।
‘‘भारत में स्वच्छता कार्यक्रम’’ नामक अध्याय में देश में अभी तक चले सफाई अभियानों व उनके आंशिक सफल रहने के कारकों पर विमर्श करते हुए लेखक ने बताया है कि पानी की लगातार होती कमी इस दिशा में सबसे बड़ा अड़ंगा है। अगले अध्याय में लेखक ने बढ़ते प्रदूषण पर चिन्ता जताते हुए कूड़े व गन्दगी को इसका मूल कारण निरूपित किया है। इससे आगे प्लास्टिक व इलेक्ट्रानिक कचरे, जैवविविधता पर खतरे, शहरीकरण का संकट, जहरीली होती जमीन पर विमर्श है।
अध्याय नौ में पर्यावरण से सम्बन्धित कानूनी प्रावधानों और इसके प्रति आम लोगों में जागरुकता के अभाव की चर्चा करते हुए चेतावनी दी गई है कि प्रकृति पूज्य है व इसके प्रति अनदेखी खतरनाक है। एक अध्याय गंगा की साफ-सफाई पर है व इस कार्य में आ रही चुनौतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक युवा वर्ग को अपने पर्यावरण के प्रति जागरुकता के साथ-साथ स्वच्छता कार्य में स्वयं लग जाने के लिये प्रेरित करती है। भाषा बेहद सहज व प्रवाहमय है। विषयों को बगैर किसी भूमिका के सीधे ही प्रस्तुत किया है और महज सवाल नहीं उठाए गए हैं, उनके सम्भावित उत्तर भी हैं।
यह शपथ डेढ़ साल पहले दो अक्तूबर को पूरे देश में सभी कार्यालयों, स्कूलों, जलसों में गूँजी थी। उस समय लगा था कि आने वाले एक साल में देश इतना स्वच्छ होगा कि हामरे स्वास्थ्य जैसे बजट का इस्तेमाल अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याओं के निदान पर होगा। लेकिन अब साफ दिख रहा है कि हम भारतीय केवल उत्साह, उन्माद और अतिरेक में नारे तो लगाते हैं। लेकिन जब व्यावहारिकता की बात आती है तो हमारे सामने दिल्ली के कूड़े के ढेर जैसे हालात होते हैं जहाँ गन्दगी से ज्यादा सियासत प्रबल होती है।
आखिर हमें कूड़ा किस तरह से निजी तौर पर नुकसान पहुँचा रहा है और गन्दगी के निवारण से हम अपने जीवन को किस तरह सहज व शान्त बना सकते हैं, इन्ही विकल्पों पर विमर्श करती है पंकज कुमार सिंह की पुस्तक - ‘‘स्वच्छ भारत, समृद्ध भारत’’। लेखक पर्यावरण व स्वच्छता के मसलों पर बीते बीस सालों से सतत लेखन कर रहे हैं। श्री सिंह अपनी पुस्तक में कहते हैं कि दुनिया भर में जो भी देश अपनी स्वच्छता और सुन्दरता के लिये मशहूर हैं, उसका मूल कारण वहाँ के आम लोगों का नागरिक बोध या सिविक सेंस है। वहाँ के निवासी साफ-सफाई के पीछे निरन्तर अनुशासित और सक्रिय बने रहते हैं। अधिकांश देशों में बच्चे को छोटी उम्र से ही इस नागरिक बोध का पाठ पढ़ाया जाता है, जबकि हमारे देश में हम सफाई को एक सरकारी मुद्दा मानकर खुद ही गन्दगी फैलाते हैं। इसी लिये ‘स्वच्छ भारत की तैयारी, जन-जन की भागीदारी’ का नारा बुलन्द करना जरूरी है।
भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है । सन 1999 में भी सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चलाया गया था लेकिन लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी का जीवन गन्दगी के बीच ही गुजर रहा है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी (राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत) खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है।
भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहाँ सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नहीं है। यही नहीं दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों से साल-दर-साल कूड़े का ढेर बढ़ता जा रहा है जबकि उसके निस्पादन के प्रयास बेहद कम हैं। हर नगर कूड़े के ढलाव से पट रहा है और उससे बदबू, भूजल प्रदूषण, जमीन का नुकसान जैसे ; कभी ठीक ना होने वाले विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।
यह पुस्तक कुल 12 अध्यायों में है और प्रत्येक अध्याय में तथ्य व आँकड़ों के साथ समस्या के निदान के बेहद सहज तरीके सुझाए गए हैं। पहला अध्याय ‘‘स्वच्छ भारतः समृद्ध भारत’’ में महर्षि पतंजलि की उस उक्ति को रेखांकित किया गया है जिसमें कहा गया है - ‘‘षौचात स्वांग जुगुप्सा परैः असंसर्गः’’। बताया गया है कि किस तरह भारत के पर्व-त्योहर, लोक रंग, सामाजिक जीवन समाज व निजी स्वच्छता के चारों ओर घूमता है और हमने आधुनिकता के नाम पर अपनी परम्परा को ही तिलांजलि दे दी हैै। अगले अध्याय में केवल एक घंटे प्रतिदिन काम करने से कैसे देश दुनिया के सामने मिसाल बन सकता है, इसका गणित बताते हुए लेखक ने कहा है कि बन्द करो बहाना, कुछ करके दिखाना। तीसरे अध्याय में कूड़ा निस्तारण के विकल्पों और हम निजी तौर पर कूड़ा कैसे कम करें, इस पर सुझाव हैं।
‘‘भारत में स्वच्छता कार्यक्रम’’ नामक अध्याय में देश में अभी तक चले सफाई अभियानों व उनके आंशिक सफल रहने के कारकों पर विमर्श करते हुए लेखक ने बताया है कि पानी की लगातार होती कमी इस दिशा में सबसे बड़ा अड़ंगा है। अगले अध्याय में लेखक ने बढ़ते प्रदूषण पर चिन्ता जताते हुए कूड़े व गन्दगी को इसका मूल कारण निरूपित किया है। इससे आगे प्लास्टिक व इलेक्ट्रानिक कचरे, जैवविविधता पर खतरे, शहरीकरण का संकट, जहरीली होती जमीन पर विमर्श है।
अध्याय नौ में पर्यावरण से सम्बन्धित कानूनी प्रावधानों और इसके प्रति आम लोगों में जागरुकता के अभाव की चर्चा करते हुए चेतावनी दी गई है कि प्रकृति पूज्य है व इसके प्रति अनदेखी खतरनाक है। एक अध्याय गंगा की साफ-सफाई पर है व इस कार्य में आ रही चुनौतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक युवा वर्ग को अपने पर्यावरण के प्रति जागरुकता के साथ-साथ स्वच्छता कार्य में स्वयं लग जाने के लिये प्रेरित करती है। भाषा बेहद सहज व प्रवाहमय है। विषयों को बगैर किसी भूमिका के सीधे ही प्रस्तुत किया है और महज सवाल नहीं उठाए गए हैं, उनके सम्भावित उत्तर भी हैं।
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