सद्गुण को परिभाषित करें
Answers
कोई मनुष्य कैसा है, इसका निर्णय उसके दो गुणों से किया जा सकता है। पहला उसकी वाणी और दूसरा वृत्ति। किसी पेड़ से प्राप्त होने वाली सघन छाया से उस पेड़ की उपयोगिता सिद्ध होती है। फलदार पेड़ की डालियां सदा झुकी होती हैं। प्राय: सारे फलों का स्वाद मीठा होता है। फल मीठे हों और पेड़ की फलदार डालियां झुकी न हों, ऐसा नहीं हो सकता। फल मीठे न हों, तो कोई उनके निकट नहीं जाएगा, जिससे फल और पेड़, दोनों के प्रति कोई उत्सुकता नहीं रहेगी। यह स्थिति मनुष्य के साथ भी है। मनुष्य की मधुर भाषा और उसके उपयोगी कार्य ही उसे समाज में स्वीकार्य बनाते हैं। ये विशेषताएं मनुष्य की आत्मिक समृद्धि और जीवन में सुख के लिए भी आवश्यक हैं और मनुष्य के सद्गुणों का सार भी हैं। मनुष्य एक निश्चित मार्ग पर चलकर ही जीवन को सार्थक बना सकता है। यह मार्ग सद्गुणों को धारण करने का है, जो उसके कमरें का आधार बनते हैं। जिन आधारभूत गुणों की आशा मनुष्य से की जाती है, वे हैं दया, संतोष और शील। ये गुण ही मनुष्य के शेष सारे गुणों के जनक हैं। मन में दया हो तो उदारता, संवेदनशीलता, परोपकार और त्याग जैसे गुण प्रबल होते हैं। संतोष हो तो लोभ, मोह के स्थान पर दान और सदाचार की वृत्ति दृढ़ होती है। शील हो तो क्रोध, काम और अहंकार के स्थान पर सहिष्णुता, धैर्य, संयम जैसे तत्व मुखर होते हैं। इन सारे गुणों के परिणाम स्वरूप सहजता और समदृष्टि प्राप्त हो जाती है, जो जीवन में मिठास और नम्रता लाने वाली है।
मिठास और नम्रता वाणी और कर्म, दोनों को प्रेरित करते हैं। शब्द बोले जाएं या सुने जाएं, पढ़े जाएं या लिखे जाएं, वे मधुर, शिष्ट और मंगलमय होने चाहिए। कोई भी मनुष्य अपने परिवेश में प्रयुक्त हो रहे शब्दों से पूर्णत: प्रभावित होता है। भारतीय संस्कृति में सत्संग का बड़ा महत्व है। यह सत्संग चाहे मनुष्यों का हो या ग्रंथों का, अंतत: शब्दों का ही संग होता है। शब्दों से अधिक संप्रेषणीय और कुछ नहीं है। इस लिए सत्संग का चयन सावधानी से करें। फल पेड़ का कर्म है, वैसे ही मनुष्य का आचार ही उसके जीवन का फल है। संसार में मनुष्य अच्छा या बुरा, अपने कमरें का फल भोग रहा है। यह कर्म इस जन्म के हो सकते हैं, पूर्व जन्म के या उससे भी पिछले जन्म के।