Satya aur Ahinsa par nibandh in 150 words in hindi
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आजकल धर्म और राजनीति में सत्य और अहिंसा की बहुत चर्चा होती है। हमें लगता है कि इनके वास्तविक स्वरूप व इनके प्रयोग के विषय में लोगों में अनेक भ्रान्तियां है। इसलिए हम आज इस विषय में कुछ विचार कर रहे हैं। सत्य और अहिंसा का वेद से लेकर सभी शास्त्रों में वर्णन व गान किया गया है। ईश्वर का पहला प्रमुख नाम ही सच्चिदानन्दस्वरूप है। सच्चिदानन्द तीन शब्दों का समुदाय है जिसमें सत्य, चित्त और आनन्द इन तीन गुणों का समावेश है। सत्य किसी पदार्थ की सत्ता को कहते हैं। ईश्वर है और उसकी सत्ता भी है, यह यथार्थ है। इसलिये ईश्वर को सत्य कहा गया है। व्यवहार में भी सत्य व असत्य शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जो पदार्थ जैसा है, उसको उसके यथार्थ स्वरूप के अनुरूप जानना व मानना सत्य कहलाता है। यदि किसी को उसका सत्य स्वरूप विदित नहीं है, और वह फिर भी उस अवास्तविक स्वरूप को जिसे वह फली प्रकार से जानता नहीं है
सत्य का व्यवहार करने के लिए यह आवश्यक है कि हम जिसके प्रति सत्य का व्यवहार कर रहे हैं वह भी निर्दोष हो और हमारे प्रति सत्य का व्यवहार करे। यदि दूसरे व्यक्ति का उद्देश्य द्वेषपूर्ण हो तो फिर ऐसे व्यक्ति के प्रति सत्य का व्यवहार करने से पूर्व उससे होने वाले हानि व लाभों पर विचार कर लेना उचित होता है। यह तो निश्चित है कि जो व्यक्ति सच्चा व सत्य पर दृण है उसके प्रति व्यक्तिगत व्यवहार करते हुए हमें सत्य का पालन वा व्यवहार ही करना चाहिये। यदि वह हमसे छल कर कुछ पूछ रहा है तो हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि उसका उद्देश्य क्या है और वह हमारी जानकारी का सदुपयोग करेगा या दुरुपयोग। यदि हमारे सत्य बोलने से किसी की हानि होती है, प्राण जा सकते हैं व अन्य प्रकार से दुःख व पीड़ा हो सकती है तो हमें विचार करना चाहिये और ऐसा सत्य बोलना चाहिये जो प्रिय हो परन्तु अनिष्ट किसी प्रकार अपना व दूसरों किसी का न हो। ऐसा कहा जाता कि किसी निर्दोष के प्राण बचाने के लिए यदि मौन रहा जाये तो वह अच्छा होता है। उदाहरण भी यह हो सकता कि एक व्यक्ति के पीछे कुछ हत्यारे घूम रहे हैं। वह हमसे पूछे कि अमुक व्यक्ति किधर गया? क्या आपने देखा? ऐसी परिस्थिति में जानते हुए भी यही कहना उचित है कि हमने नहीं देखा। इससे उसकी प्राण रक्षा हो जाती है। शहीद भगत सिंह ने जब लाला लाजपतराय जी के हत्यारे साण्डर्स को गोली मारी तो वह डीएवी कालेज लाहौर के प्रांगण से होकर भागे थे। वहां इतिहासविद् पं. भगवददत्त जी, अमरस्वामी जी आदि उपस्थित थे। उन्होने उन्हें जाते हुए देखा था। कुछ ही क्षणों मे पुलिस वहां आई और इनसे पूछा तो इन्होंने उत्तर दिया कि हमने नहीं देखा। अतः सत्य का प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिये। रामायण और महाभारत में सत्य व असत्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं। अहिंसा की रक्षा के लिए कई बार हिंसा आवश्यक होती है, उसके भी अनेक उदाहरण हैं।
ऐसा माना जाता है कि जो असत्य दूसरों के हित के लिए बोला जाता है, वह असत्य नहीं होता। सत्य बोलने से परिणाम भी शुभ ही होना चाहिये। दुष्टों के प्रति सत्य का व्यवहार करना उचित प्रतीत नहीं होता। जो लोग हमारे बन्धुओं व धर्म के शत्रु हैं, उनके प्रति यदि हम सत्य का कोमल व्यवहार करते हैं तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। इतिहास इसके उदाहरणों से भरा है। इसी कारण वेदों के ज्ञाता, ईश्वर के साक्षात्दर्शी ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने नियम बनाया है कि सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। यहां धर्मानुसार और यथायोग्य शब्दों पर विचार करना चाहिये और उसके अनुरूप ही हमारा व्यवहार होना चाहिये। चोर के प्रति उसके अनुरूप यथायोग्य व्यवहार होना चाहिये। झूठे व छली व्यक्ति व समुदायों के प्रति भी धर्मानुसार व यथायोग्य व्यवहार ही करना चाहिये। हर परिस्थिति में सबसे एक समान सत्य का व्यवहार करना उचित नहीं प्रतीत होता। यह हानिकारक व घातक हो सकता है। देश व समाज के हित के लिए यदि कुछ असत्य भी कहना पड़े तो करना चाहिये परन्तु अपने व्यक्तिगत हित व स्वार्थ के लिए असत्य का व्यवहार उचित नहीं है। इसके लिए हमें श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा चाणक्य, ऋषि दयानन्द आदि महापुरूषों के जीवनों सहित नीति ग्रन्थों चाणक्य नीति, विदुर नीति, शुक्र नीति, भृतहरि शतक आदि का अध्ययन करना चाहिये और जानना चाहिये कि किस परिस्थिति में सत्य का किस प्रकार से प्रयोग या व्यवहार किया जाये। हर परिस्थिति में सत्य का समान रूप से प्रयोग स्वयं व देश व समाज के लिए अहितकर हो सकता है। देश में भी बहुत सी गुप्त सूचनायें होती हैं। अधिकारियों को शपथ दिलाई जाती है कि वह उसकी गोपनीयता बनायें रखेंगे अर्थात् सत्य भाषण नहीं करेंगे। उसका पालन न करना दण्डनीय होता है। यहां वेदों के ज्ञान के आधार पर ऋषि दयानन्द द्वारा सत्य से संबंधित बनाये अन्य नियमों को भी प्रस्तुत कर देते हैं। पहला नियम है ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।’ तीसरा नियम है ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।’ चौथा नियम है ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ पांच नियम है ‘सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिएं।’