satya hi jeevan ka aadhar hai par kahaani likhiye
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बरनावा स्थित ज्ञान सागर गुरुकुल में सोमवार को आयोजित धर्मसभा में ब्रह्मचारी अतुल भैया ने कहा कि सत्य के मार्ग पर चलकर ही जीवन का कल्याण हो सकता है। सत्य ही जीवन का आधार है।
धर्मसभा में उन्होंने कहा सत्य शब्द सुनने देखने में छोटा लगता है, लेकिन जब व्यक्ति इसका अनुसरण करता है तो वह परम पद तक पहुंच जाता है। सत्य हमें प्रकाश की ओर ले जाता है और प्रमाद से बचाता है। भगवान महावीर ने कहा है कि ¨हसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह के भाव को त्याग देना ही सत्य है। उन्होंने कहा सत्य मनुष्य को जीने की कला सिखाता है, सत्य ही जीवन का आधार है। असत्य के आधार पर टिका जीवन स्थायी नहीं हो सकता। मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण अनेक प्रकार के झूठ बोलता है। जिससे उसका जीवन कष्ट पूर्ण व्यतीत होता है। सत्य के मार्ग पर चलकर ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है। सत्य मांगने से नही साधना से मिलता है। धर्मसभा में गुरुकुल के बच्चो ने मंगलाचरण, गुरु वन्दना, भजन, गीत, कविता आदि प्रस्तुत किये। धर्मसभा का संचालन राकेश जैन ने किया। धर्मसभा में गौतमचंद जैन, चन्द्रकांत जैन, दिनेश जैन, मुकेश जैन, विशाल जैन, पूनम जैन, श्रवण जैन, विकास जैन, मनोज जैन, गीता, समर्थ, सम्भव आदि मौजूद रहे।
Explanation:
सत्य इस संसार में बड़ी शक्ति हैं. सत्य के बारे में व्यवहारिक बात यह है कि सत्य परेशान हो सकता हैं. मगर पराजित नहीं. भारत में कई सत्यवादी विभूतियाँ हुई जिनकी दुहाई आज भी दी जाती हैं जैसे राजा हरिश्चन्द्र, सत्यवीर तेजाजी महाराज आदि. इन्होने अपने जीवन में यह संकल्प कर लिया था कि भले ही जो कुछ हो जाए वे सत्य की राह को नहीं छोड़ेगे.
सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है सते हितम् यानि सभी का कल्याण. इस कल्याण की भावना को ह्रदय में बसाकर ही व्यक्ति सत्य बोल सकता हैं. एक सत्यवादी व्यक्ति की पहचान यह है कि वह वर्तमान, भूत, भविष्य के बारे में विचार किये बिना अपनी बात पर दृढ़ रहता हैं. मानव स्वभाव की सत्य के प्रति आगाध श्रद्धा झूठ के प्रति गुस्से के भाव आते हैं.
सत्य के विभिन्न सिद्धान्त
न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।
सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं - हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।
मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है, न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।