satya ki utpatti huia.sat se b.satv se .c.satya se d.sach seसत्य की उत्पत्ति किससे हुई है
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न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।
सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं - हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।
मैं कहता हूँ कि मुझे दांत में दर्द हो रहा है। इसका अर्थ क्या है? मेरा अनुभव एक धारा है जिसमें निरंतर गति होती रहती है। मैं कहता हूँ कि धारा का जो भाग वर्तमान में ज्ञात है, दु:ख की अनुभूति उसमें प्रमुख पक्ष है। मेरे लिए यह स्पष्ट अनुभव है और मैं इसमें संदेह कर ही नहीं सकता। मेरे लिए इसे जाँचने को दूसरा मापक न है, न हो सकता है। स्पष्ट बोध से अधिक अधिकार किसी अन्य अनुभव का नहीं।
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