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हरी बिन्दी
आँख खुलते ही आदतन नजर सबसे पहले कलाई पर लगी घड़ी
पर गई-सिर्फ साढ़े छः। उसने फौरन आँखें दुबारा कस कर बंद कर ली
और इंतजार करने लगी कि अब पलंग चरमराएगा और आवाज़
आएगी-उठना नहीं है क्या? पर जब कुछ देर चुप्पी बनी रही. तो आँखें
खोलकर देखा। बिस्तर पर वह अकेली है। ओह हाँ, कल रात ही तो
राजन दिल्ली गया है, याद ही नहीं रहा। तो अब उठने की कोई जल्दी
नहीं है। उसने ढेर सारी हवा गालों में भरकर एक लम्बी साँस छोड़ी और
पूरे बिस्तर पर एक बार लोट गई। दूसरे सिरे पर जाकर मुँह पर बाँह
रखकर लेटी, तो कानों में पड़ी की टिक-टिक तीव्रता से बज उठी। वह
मुस्करा दी। उसे कलाई पर घड़ी बाँधकर सोने की आदत है। राजन रोज
चिढ़ कर कहता है-यह क्या सारी रात कान के पास टिक-टिक होती
रहती है। इसे ठतारो ना
उसने याँह उठा ली, तकिया खींचकर, पेट के नीचे दबा लिया
और लंबे-चौड़े पलंग पर बाँहें फैलाकर औंधी लेट गई। उफ, सुबह देर
तक सोने में कितना आनंद है। राजन होता है तो सुबह छ:-साढ़े छः बजे
से ही खटर-पटर शुरू हो जाती है... खाने, चाय-नाश्ते की तैयारी और
आठ बजे तक दफ्तर के लिए रुखसत। न जाने यह राजन को जल्दी
उठने का क्या मर्ज है। खैर, आज वह स्वतंत्र है। जो चाहे करे, उसने
शरीर को ढीला छोड़ दिया और दुबारा सोने की तैयारी करने लगी।
फिर जब आँख खुली, तो साढ़े आठ बज चुके थे। उसने एक
प्याला चाय बनाई और खिड़की का परदा हटाकर बाहर झाँकने लगी। दूर
हरी बिन्नी 017
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ohh bhaiii itna kon padhega
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